कैसे इस आईएएस अधिकारी ने ‘बाला पेंटिंग्स’ की मदद से ‘आंगनबाड़ियों’ की कायापलट कर दी!
- Bhakti Kothari
- Published on 30 Oct 2021, 5:05 pm IST
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हाइलाइट्स
- चाहे ग्रामीण बच्चों की शिक्षा हो या महिलाओं को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करवाना हो, इस अधिकारी ने सबके लिए खुद जमीन पर उतरकर काम किया है
- 700 ‘आंगनबाड़ियों’ की दीवारों पर ‘बाला चित्रों’ के माध्यम से बच्चों में शिक्षण और राष्ट्रवाद की अलख जगाने वाले इस आईएएस के झारखंड जिले में उठाए गए कई अभिनव पहलों ने एक अनूठी मिसाल कायम की है
- आईएएस अधिकारी आदित्य रंजन ने ‘आंगनबाड़ी’ को आधुनिक और राष्ट्रवादी रूप दिया है
खुद सरकारी स्कूल से पढ़ाई करने वाले आईएएस अधिकारी आदित्य रंजन एक सामान्य सरकारी स्कूल की स्थिति से पहले से ही अच्छी तरह वाकिफ थे। लेकिन जब वह झारखंड के सिंहभूम जिले के आंगनबाड़ियों में स्वयं सरकारी स्कूलों के लिए देखने के लिए एक फील्ड ट्रिप पर गए, तो वो चकित रह गए। स्कूलों की हालत जर्जर, टूटे हुए फर्नीचर, टूटी हुई दीवारें, गिरती छतें, गिने चुने छात्र और शिक्षकों की अनुपस्थिति, यह नजारा इलाके में शिक्षा व्यवस्था के लिए आम था। लेकिन इस बदलाव के वाहक बने आईएएस आदित्य रंजन, जिन्होंने अपनी नवीन पहलों और आम लोगों व नेताओं के बीच सामंजस्य बिठाकर स्कूलों से लेकर पूरे इलाके में अहम बदलाव लेकर आए।
आदित्य रंजन एक कारोबारी परिवार से नाता रखते हैं। लेकिन उनकी प्राइमरी स्कूलिंग सरकारी स्कूल से ही हुई थी। अपने 4 भाई-बहनों में रंजन दूसरे नंबर पर आते हैं, उनके सबसे बड़े भाई डॉ. राकेश कुमार एक ऑर्थोपेडिशियन और छोटा भाई कारोबारी है। वहीं उनकी बहन ने एमबीए कैया हुआ है, जबकि उनके बहनोई रमनद कुमार रिलायंस में सीए हैं। आम लोगों की जन-सेवा के सपने देखने वाले रंजन ने सिविल सेवाओं को कैरियर के रूप में चुना और आज वो पूर्ण समर्पण भाव से झारखंड में आमजनों की जिंदगियां संवार रहे हैं।
कंप्यूटर इंजीनियरिंग में पढ़ाई करने वाले आदित्य रंजन मल्टी नेशनल कंपनी ओरेकल में नौकरी करते थे। लेकिन सिविल सेवा में जाने के उनके सपने ने उन्हें नौकरी छोड़ने पर मजबूर कर दिया, उन्होंने इस्तीफा देकर यूपीएससी की तैयारी शुरू कर दी। सिविल सर्विस की तैयारी की। कड़ी मेहनत और लगन के बल पर उन्होंने साल 2014 में देश भर में 99 वीं रैंक के साथ भारत की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा पास कर ली।
प्रशासनिक सेवाओं में आने के बाद रंजन ने आंगनवाड़ी प्रणाली को एक मॉडल में बदल दिया है। इंडियन मास्टरमाइंड्स के साथ बात करते हुए, रंजन कहते हैं, “यहां कई आंगनबाड़ियां खुलती ही नहीं थीं। जो सक्रिय थीं, उनकी इमारत जर्जर हो चुकी थी और वहां न ही सही अवस्था में शौचालय थे और न ही पीने के पानी सुविधा थी। बच्चे केवल मध्याह्न भोजन के लिए आते थे। सरकार द्वारा अनिवार्य माता समिति (प्रत्येक आंगनबाड़ी में शिक्षकों और सहायकों के लिए एक मंच) कहीं नहीं दिख रही थी।”
उन्होंने जल्द ही महसूस हो गया कि जिले में चीजें बहुत ही गड़बड़ अवस्था में थीं। वो कहते हैं, “पूर्व में, मैंने खुद एक सरकारी स्कूल से पढ़ाई की है, इसलिए मुझे यहां के माहौल के बारे में बेहतर पता था। मेरे दिमाग में यह बात आई कि मुझे इन स्कूलों के लिए कुछ करना चाहिए, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि उनकी सुविधाओं में वही कमियां हों जो मैंने झेलीं। मैंने फौरन वो कोशिशें की जो मैं कर सकता था।”
इस युवा आईएएस अधिकारी ने अपने पहले कदम के रूप में दो स्रोतों से मदद ली, एक तो इंटरनेट और दूसरा एलबीएसएनएए से उनके सीनियर्स। रंजन को उनके सीनियर्स ने उन्हें ‘बाला पेंटिंग्स’ (बाला चित्रों) से परिचित कराया, जिसका उपयोग उन्होंने स्कूलों के बाह्य आवरण और बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने के लिए किया।
आदित्य ने सरकारी स्कूलों के बुनियादी ढांचे को निजी स्कूलों के समान बेहतर बनाने का सपना देखा था। वह चाहते थे कि सरकारी स्कूलों के छात्रों को भी इसी तरह की सुविधाएं और एक्सपोजर (पहुंच) मिले।
मन ही मन में शुरू हुई योजना
आदित्य ने स्कूलों को बदलने की प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताया जो कि पहली बार उनके दिमाग में अंदर ही अंदर घर बना रही थी। वो कहते हैं, “स्कूलों से लंगरों की तरह व्यवहार किया जाता था, जहां छात्र केवल मध्याह्न भोजन के लिए आते थे। मैंने महसूस किया कि उन्हें ‘पोषक तत्व – शिक्षा केंद्रों’ में बदल दिया जाना चाहिए।”
आदित्य ने आगे बताया कि किस प्रकार प्रत्येक पोषक-शिक्षा केंद्र में कम से कम तीन गतिविधियां होनी चाहिए थीं।
- पोषण
- शिक्षा
- स्वच्छता और आत्म-निर्भरता की शिक्षा
आदित्य और उनकी टीम काम करने के लिए निकल पड़ी। उनका पहला ध्यान प्री-स्कूलों पर था। वो कहते हैं, “अनुसंधान से पता चलता है कि बच्चे के पहले 1000 दिन मस्तिष्क के विकास के सबसे महत्वपूर्ण वर्ष हैं। पहले 5 वर्षों में, मस्तिष्क का 99% पहले से ही विकसित हो जाता है। यही मुख्य कारण है कि पश्चिमी देशों की शिक्षा प्रणालियों में, प्री-स्कूलों का शुल्क सामान्य स्कूलों की तुलना में दस गुना अधिक है। लेकिन भारत में, यह बिलकुल अलग है।”
पहला केंद्र
आदित्य को इस बात की जानकारी नहीं थी कि पोषक तत्व-शिक्षा केंद्र बनाने के लिए किन-किन चीजों की आवश्यकता होगी। इसलिए अपने उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने जिले के पहले ऐसे केंद्र के निर्माण में अपनी जेब से पैसे का इस्तेमाल किया। वो कहते हैं, “यह केंद्र बनाने में मुझे दो महीने लगे और मैंने इसका नाम ‘तितली’ रखा। इसके अलावा, मैंने एक आधुनिक ‘आंगनबाड़ी’ केंद्र बनाने के लिए आवश्यक सभी वस्तुओं की एक सूची बनाई। इस तरह से उचित बुनियादी ढांचे, पेंटिंग्स और पाठ्यक्रम कि शुरुआत हुई।”
आंगनवाड़ी केंद्रों को बढ़ाना
इसके साथ ही, आदित्य ने मुंबई के एक संगठन ‘तितली’ के साथ एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए। रंजन कहते हैं, “अपने पहले कदम के रूप में, हमने केंद्रों में मौजूद ‘बाला पेंटिंग्स’ के आधार पर इन आंगनबाड़ी केंद्रों की सेविकाओं को प्रशिक्षित किया। इन सेविकाओं को बाला पेंटिंग का उपयोग करते हुए ‘ए’ (A) से लेकर ‘जेड’ (Z) अक्षर तक दर्शाना और पढ़ाना सिखाया गया।”
शैक्षिक चित्रों से लेकर राष्ट्रीय प्रतीक, पशु और फूल के रूप में स्वच्छता, स्वास्थ्य और राष्ट्रीयता से संबंधित चित्र, इन आंगनबाड़ियों में यह सब था।
एक अन्य मुद्दा जिसका आदित्य रंजन ने सामना किया, वह था सिंहभूम जिले में वामपंथी चरमपंथ यानी लेफ्ट-विंग एक्सट्रीमिज्म। वो विस्तार से बताते हुए कहते हैं, “यहां की 217 पंचायतों में से 200 वामपंथी चरमपंथ से प्रभावित थीं। जिले में ऐसे गांव हैं, जो भारतीय संविधान को नहीं मानते हैं। वे खुद को भारत का हिस्सा नहीं मानते हैं। इसलिए, मुझे सभी आंगनबाड़ी केंद्रों में राष्ट्रवाद का भाव लाना पड़ा। अब तक, सभी आंगनबाड़ी केंद्रों में राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय चिन्ह, राष्ट्रीय प्रतीक, राष्ट्रीय पशु, राष्ट्रीय पक्षी को इमारतों में वहीं चित्रित किया जाता है, ताकि उन्हें 3 से 4 वर्ष की आयु से ही राष्ट्रवाद की अनुभूति हो।”
ये वे अभिन्न हिस्से हैं, जिन्हें उन्होंने पहले आंगनवाड़ी केंद्र में शामिल किया और फिर आगे भी उन्होंने कई फंड स्रोतों का उपयोग करते हुए 700 से अधिक केंद्रों में इसे दोहराया। उन्हें सीएसआर फंड और कुछ सरकारी स्रोतों से खूब आर्थिक मदद मिली। इन सभी ने रंजन को 700 आंगनवाड़ी केंद्रों को आधुनिक कला केंद्रों में बदलने में मदद की।
स्कूलों में बदलाव
आदित्य ने इसी तर्ज पर स्कूलों के बदलाव के लिए भी काम किया। उन्होंने उन चीजों की एक सूची तैयार की, जो वहां होनी चाहिए। इस सूची में उन्होंने कक्षा 1 से 2 तक पार्किंग स्ट्रेच, खेल के मैदान, खेल के उपकरण, इनडोर स्टेडियम, डाइनिंग शेड, मॉड्यूलर किचन, मॉड्यूलर टॉयलेट, आईसीटी लैब्स, साइंस लैब और लाइब्रेरी से लेकर बाला पेंटिंग तक शामिल किया।
रंजन कहते हैं, “सभी कक्षाओं में उनके स्तर के हिसाब से संबंधित पेंटिंग कक्षा में जरूर होगी। बुनियादी चीजें दीवारों पर होंगी, इसलिए यह उन्हें हर समय दिखाई देगा और इस तरह, यह सब उन्हें हमेशा के लिए याद हो जाएगा। यदि आप सौर पैनल चित्रित छत वाले कमरे में बैठे हैं, तो आप कभी नहीं भूलेंगे कि वहां क्या है और यही मूल विचार था।”
उन्होंने पहला स्कूल खुद बनाया और 7 अन्य तक यही दोहराते चले गए। उन्होंने कहा, “मैं 62 और मॉडल स्कूल बनाने की प्रक्रिया में था, लेकिन इससे पहले कि मैं ऐसा कर पाता, मेरा ट्रांसफर हो गया।”
चुनौतियां
जिन चुनौतियों का उन्हें सामना करना पड़ा, उनके बारे में बात करते हुए, वो बताते हैं कि पहली चुनौती नए मॉडलों की स्वीकृति की थी। राजनीतिक नेताओं से लेकर दूसरे लोग, सभी ऐसासोच भी नहीं सकते थे। राजनीतिक नेताओं को समझाना दूसरी चुनौती थी।
रंजन कहते हैं, “मैंने क्षेत्र के सांसद को पहले आंगनबाड़ी केंद्र का उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित किया और वह उन्हें बहुत पसंद आया। इसी तरह, मैंने स्थानीय जिले के सभी विधायकों और सांसदों के साथ एकजुट हो कर काम करना शुरू कर दिया।
तीसरी और सबसे बड़ी चुनौती रंजन के सामने थी, जिसे वो केंद्रों का ‘नरम घटक’ कहते थे। वो कहते हैं, “आप उन्हें इमारतें दे सकते हैं, आप उन्हें वर्दी दे सकते हैं, आप उन्हें अच्छा बुनियादी ढांचा दे सकते हैं, लेकिन आप उन्हें इसके लिए काम नहीं करवा सकते। तो उसके लिए, मैंने जिले में एक इंटर्नशिप कार्यक्रम शुरू किया। हमने आंगनवाड़ी सेविकाओं और सहायिकाओं को एक सप्ताह तक प्रशिक्षण दिया। मैंने आईआईटी, एनआईटी जैसे शीर्ष कॉलेजों के स्वयंसेवकों को रखा और उन्हें 10 हजार रुपए का मासिक वेतन भी प्रदान किया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि सेविकाएं और सहायिका वास्तव में उस प्रशिक्षण के अनुसार काम कर रहे हों, जो उन्हें प्राप्त हुआ था और वहां के छात्रों को पढ़ाने के लिए ‘बाला चित्रों’ का सटीक तरीके से उपयोग भी करती रहें।”
रंजन ने उन शिक्षकों को भी नियुक्त किया, जो निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के माता-पिता के पास जाएं और उन्हें अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के लिए प्रेरित करें। अमीर बच्चों को सरकारी स्कूलों में लाने से वहां की शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने में मदद मिली। उन्होंने कहा, “जब मैंने स्कूल शुरू किया, तब यहां पढ़ने वाले बच्चों की संख्या 182 थी। लेकिन एक बार जब स्कूल आधुनिक हो गया, तो उसी शैक्षणिक वर्ष के भीतर यह संख्या 182 से बढ़कर 368 हो गई।”
स्वास्थ्य कल्याण केंद्र
सिंहभूम के जिला मुख्यालय चाईबासा में झारखंड राज्य में सबसे अधिक स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र हैं। इसका एक बड़ा श्रेय आदित्य रंजन के अच्छे कार्यों को भी जाता है। जिस तरह उन्होंने आंगनबाड़ियों को नया जीवन दिया, उसी तरह उन्होंने इन केंद्रों को भी बदल दिया।
इतना ही नहीं, हर छात्र को कंप्यूटर शिक्षा देने के लिए रंजन ने जिला ई-गवर्नेंस सोसायटी कंप्यूटर प्रशिक्षण कार्यक्रम (डीजीएस) शुरू किया है। इस कार्यक्रम में दो महीने का लंबा पाठ्यक्रम शामिल है, इससे अब तक लगभग 1,700 छात्र इससे पहले ही लाभान्वित हो चुके हैं। इसके साथ उन्होंने ‘वंडर ऑन व्हील्स’ कार्यक्रम भी शुरू किया, जिसका उद्देश्य गणित और विज्ञान में रुचि पैदा करना है।
अपने स्वयं के उदाहरणों से, रंजन ने दिखाया है कि सामाजिक जिम्मेदारी के एक मजबूत अर्थ के साथ मिलकर आधिकारिक शक्ति किसी भी स्थान पर चमत्कार कर सकती है।
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