हजारों पक्षियों को बचाने वाले आईएफएस अधिकारी की अब तेंदुए बचाने की मुहिम!
- Ayodhya Prasad Singh
- Published on 29 Nov 2021, 5:01 pm IST
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हाइलाइट्स
- गुलेल से पक्षियों को निशाना बनाने की दशकों से चली आ रही प्रथा को खत्म करने के लिए 2018 बैच के आईएफएस अधिकारी आनंद रेड्डी ने ‘गलोर समर्पण अभियान’ की अद्भुत रणनीति बनाकर अनगिनत पक्षियों की जान बचाई है।
- इससे पश्चिमी घाटों की नासिक रेंज के वनों में पक्षियों की चहचहाहट वापस लौट आई है। लेकिन क्या यह सब इतना आसान नहीं था...नहीं, बिल्कुल नहीं!
- 2018 बैच के महाराष्ट्र कैडर के आईएफएस अधिकारी ने बच्चों को गुलेल छोड़ने और पक्षियों को बचाने के लिए प्रेरित किया (क्रेडिट: सोशल मीडिया)
गोदावरी नदी के तट पर स्थित महाराष्ट्र के एक प्राचीन और धार्मिक शहर नासिक में पश्चिमी घाटों की खूबसूरत पर्वत श्रृंखला है। इसी कारण यहां बहुत से हरे-भरे घने वन हैं। लेकिन वनों की अधिकता होने के बाद भी पक्षियों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से लगातार कम हो रही थी। इसका सबसे बड़ा कारण इलाके के बच्चों का गुलेल, जिसे स्थानीय भाषा में गलोर कहा जाता है, से पक्षियों को निशाना बनाना रहा है। देश के कई गांवों की तरह, दशकों से यहां भी बच्चे गुलेल से खेलते आ रहे हैं और पक्षियों को निशाना बनाते रहे हैं। इससे पक्षियों की संख्या निरंतर कम होती रही और किसी ने भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया।
लेकिन 2018 बैच के महाराष्ट्र कैडर के आईएफएस अधिकारी आनंद रेड्डी को जब पूर्वी-नासिक रेंज में अपनी पहली पोस्टिंग मिली, तो ये हालात देखकर वो व्यथित हो गए और किसी भी कीमत पर पक्षियों की जान बचाने का बीड़ा उठा लिया। फिर क्या था भारतीय वन विभाग के इस अधिकारी ने इलाके में बदलाव की ऐसी पटकथा लिखी कि आज हर कोई उनकी तारीफें करता नहीं थकता। आनंद रेड्डी ने ऐसी खुशनुमा और सुखद प्रेरणा बच्चों को दी है कि उनकी कहानी लोगों के लिए एक आदर्श का प्रतिरूप बन गयी है।
समस्या की शुरुआत
इंडियन मास्टरमाइण्ड्स से अपनी इस खूबसूरत और प्रेरणादायक मुहिम पर एक खास बातचीत में सहायक वन संरक्षक के पद पर तैनात आईएफएस आनंद रेड्डी कहते हैं, “मुझे बचपन से ही फोटोग्राफी से बहुत लगाव था, खासकर वाइल्डलाइफ फोटोग्राफी। इसीलिए, जब मुझे पूर्वी-नासिक रेंज में अपनी पहली पोस्टिंग मिली, तो मैं बहुत खुश था कि यहां पश्चिमी (वेस्टर्न) घाटों की पर्वत श्रृंखला होने की वजह से वन्य जीव-जंतुओं को बहुत करीब से देख पाऊंगा और फोटोग्राफी का भी एक सुनहरा मौका मेरे पास होगा। लेकिन जब फील्ड में गया तो यह देखकर अचंभित रह गया कि जितने पक्षी मुझे शहर में दिखते थे, उससे भी कहीं कम यहां दिख रहे थे। फिर धीरे-धीरे मुझे समझ आया कि यहां गुलेल का इस्तेमाल खूब होता है।”
गुलेल के इस्तेमाल के पीछे मुख्य वजहें क्या हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए आनंद रेड्डी कहते हैं, “इसके पीछे सांस्कृतिक और सामाजिक कारणों के साथ-साथ कई आर्थिक कारण भी हैं। एक जमाने से गुलेल का इस्तेमाल पक्षियों के शिकार के लिए होता आ रहा है। लोग मांसाहार में इसका उपयोग करते हैं। बहुत से बच्चे गुलेल का खेल भी खेलते हैं और निशाना लगाते हैं। लेकिन मैं यहां कोई कानूनी कदम नहीं उठा सकता था, क्योंकि ‘भारतीय वन्य जीव संरक्षण अधिनियम’ के तहत बहुत कड़ी सजा के प्रावधान हैं और बच्चों के लिए ऐसी सजा कहीं से भी जायज नहीं थी। इसलिए, मुझे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था कि मैं क्या करूं।”
व्यवहारिक हल
आखिरकार आनंद रेड्डी ने इस समस्या के व्यावहारिक हल के लिए एक रणनीति तैयार की। आनंद रेड्डी कहते हैं, “5 जून को पर्यावरण के मौके पर हम लोग हमेशा पौधा रोपड़ करते हैं, लेकिन मैंने ठान लिया था कि पक्षियों को बचाने के उद्देश्य से अबकी बार कुछ अलग करना है। आखिरकार बहुत सोच-विचारकर मैंने रणनीति बनाई और इसके लिए 15 दिन पहले से ही अपनी योजना पर काम शुरू कर दिया। मैंने अपने 25 लोगों के स्टाफ के साथ बहुत से वर्कशॉप आयोजित किए, जहां उन्हें पक्षियों के महत्व के बारे में विस्तार से बताया। साथ ही जंगल को बचाने को लिए पक्षियों को बचाना क्यों जरूरी है, इस पर भी कई सत्र लिए।”
गलोर समर्पण अभियान
आनंद कहते हैं, “हमने ‘गलोर समर्पण अभियान’ के तहत 10 पॉइंट की एक स्कीम बनाई, जहां पक्षियों के महत्व पर जोर देना था, पक्षियों के होने के फायदे गिनाने थे – मसलन पक्षियों की वजह से कीड़े कम होते हैं, उनकी वजह से खेतों को बहुत लाभ मिलता है। यह सब बहुत ही व्यावहारिक तरीकों से करना था और बच्चों को समझाना था। साथ ही इसके सांस्कृतिक महत्व पर भी बात करनी थी, जैसे पक्षियों को हम सदियों से भगवान का दर्जा देते आए हैं इत्यादि। प्रत्येक बच्चे से बात करके सरल शब्दों में बताना था कि उनके कृत्य से पक्षियों को भी दर्द होता है। उनसे वादा लेना था कि वे फिर कभी इसका उपयोग नहीं करेंगे और उन्हें स्वेच्छा से गुलेल छोड़ने के लिए प्रेरित करना था। फिर हमने प्रयासों के तरीकों पर विचार किया और यह तय हुआ कि पहले चरण में हम अपनी ‘पेठ तालुका’ के गांव-गांव जाकर बच्चों को समझाएंगे। इसके लिए हमने “गलोर हटवा, पाक्षी वाचवा” स्लोगन की रचना की, जो कि बहुत ही प्रेरणादायक है।”
बच्चों के लिए ‘आपात निधि फंड’ से गिफ्ट
लेकिन आनंद ये जानते थे कि बच्चों को समझाना तो आसान है, पर मुफ्त में शायद ही कोई उनकी बात माने। इसीलिए, अगर किसी से स्वेच्छापूर्वक गुलेल का आत्मसमर्पण करवाना है, तो उन्हें कुछ देना भी पड़ेगा। आनंद कहते हैं, “इसलिए हमने उन्हें अपनी ‘आपात निधि फंड’ (कन्टिन्जन्सी फंड) से एक बर्ड्स कलर बूक, पेन और चॉकलेट्स देने का फैसला किया।” लेकिन आनंद को यह बात अच्छे से पता थी कि सिर्फ इतना ही काफी नहीं था, क्योंकि एक गुलेल कि औसतन कीमत 150 से 250 या 350 तक होती है और हम जो बच्चों को दिया जा रहा था, वो लगभग 100 रुपए का ही था।
आनंद कहते हैं, “इसलिए हमने एक और योजना बनाई, तालुका स्तर पर लकी ड्रा स्कीम को लेकर। इसके तहत जिन बच्चों के नाम लकी ड्रा में आएंगे, उनमें से पहले स्थान वाले को साइकिल, दूसरे स्थान वाले को क्रिकेट किट और तीसरे स्थान वाले को वॉलीबॉल मिलेगा। यह बहुत सुखद है कि हमारी यह योजना आदिवासी इलाकों में बहुत सफल रही। इतनी ज्यादा कि लोग हमारी टीम को अपने गांव बुलाने लगे, हमारा इंतजार करने लगे। पहले चरण में हमने लगातार 38 दिन तक अभियान चलाया और 93 गांवों को कवर किया। 7000 बच्चे हमारे अभियान से जुड़े और बच्चों द्वारा 684 गुलेलों का आत्मसमर्पण किया गया।
संख्याबल के आधार पर कहा जा सकता है कि इतने कम वक्त यह बहुत बड़ी कामयाबी थी और कोई भी अधिकारी इस पर नाज करेगा। लेकिन आनंद कहते हैं, “ये नंबर्स हमारे लिए मायने नहीं रखते, बल्कि लोगों के नजरिये और व्यवहार में आया बदलाव ही हमारी असली कमाई है। हमारी सफलता यही है कि जब हमारी कार्ययोजना आगे बढ़ रही थी, तो इसका इतना सकारात्मक असर हुआ कि बच्चे हमारे स्टाफ को अपने गांवों में बुलाने लगे, कुछ बच्चों ने तो मुफ्त में ही कार्यालय आकर अपनी गुलेल जमा करवा दी। जो मुहिम अब तक ‘पेठ तालुका’ में चल रही थी, हम इसे अब पूरे नासिक में लागू करने कि कोशिश कर रहे हैं।
अब तेंदुआ बचाने की मुहिम
आनंद रेड्डी अब तेंदुआ (लेपर्ड) बचाने की मुहिम में जुटे हैं। उनके पास नासिक जिले के ही एक सब-डिवीजन की अतिरिक्त जिम्मेदारी है और वहां तेंदुआ की वजह से लोग परेशान हैं। हाल ही में एक व्यक्ति की मौत भी हो गयी। इसीलिए अब आनंद फिर से एक नए वयवहारिक हल की तलाश में लगे हुए हैं। आनंद का कहना है कि तकनीक का इस्तेमाल करके कैसे तेंदुआ को बचाया जाया और लोगों की जान भी बचाई जा सके, हम इस मुद्दे पर काम कर रहे हैं।
आनंद अपनी शानदार मुहिम पर सोशल मीडिया में लिखते हैं, “आप एक प्यारा पक्षी देखते हैं। और आप एक प्यारा बच्चा देखते हैं। फिर आप उस बच्चे को एक गुलेल से पक्षी को मारते हुए देखें। क्या आप बच्चे को सजा देंगे? नासिक के कई गांवों में यह बहुत आम है। यह आपको अधूरे और खाली जंगलों की ओर ले जाता है – जहां कोई पक्षी नहीं, कोई चहकने की आवाज नहीं, कोई सुरीलापन नहीं। सिर्फ एक मौन पसरा हुआ…! लेकिन मुझे लगता है कि वयस्कों की अपेक्षा बच्चों को समझाना आसान है। और हम सफल रहे। हमने अनगिनत पक्षियों की जान बचाई है।”
कभी कभी एक छोटी सी कोशिश भी बड़े बदलाव ला सकती है। पक्षियों को बचाने के लिए शुरू हुई एक मुहिम एक छोटे आंदोलन में बदल गयी। लेकिन इस बदलाव के लिए आनंद के साथ-साथ उनकी टीम ने भी अथक परिश्रम किया। दिन-रात, धूप-बारिश किसी की भी परवाह नहीं की। आनंद जो कहते हैं, उसे ही अपनी टीम के साथ सच कर दिखाया – ‘एक बच्चे को बदलो, आप एक पीढ़ी को बदल दोगे।’
भविष्य के लिए उन्हें बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
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