आखिर क्यों एक आईएएस अधिकारी के नाम पर आदिवासियों ने अपने गांव का नाम रख दिया!
- Pallavi Priya
- Published on 14 Jan 2022, 11:01 am IST
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हाइलाइट्स
- अपने अनवरत प्रयासों और प्रतिबद्धता के साथ, दिव्या देवराजन ने एक दुर्लभ सम्मान अर्जित किया है
- तेलंगाना के आदिलाबाद जिले के एक गांव का नाम उनके नाम पर रखा गया है, लेकिन इसके पीछे की कहानी आपको बहुत प्रेरणा देगी!
- आदिलाबाद से रुखसती के वक्त विदा लेती दिव्या देवराजन
प्रत्येक दो या तीन वर्षों में एक जिला आयुक्त (डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर) को एक नए सेवा क्षेत्र में स्थानांतरित या नियुक्त किया जाता है। उनमें से अधिकांश अपने काम को बेहद जिम्मेदारी से करते हैं। लेकिन कितनी बार एक अधिकारी अपने कर्तव्यों से परे जाकर लोगों की मदद कर उनका दिल जीतने में कामयाब रहते हैं? और उनके स्थानांतरण पर, उस क्षेत्र विशेष के लोग अपने गांव का नाम ही बदल कर उस अधिकारी के नाम कर देते हैं? विरले ही शायद!
लेकिन आईएएस अधिकारी दिव्या देवराजन ने अपनी प्रतिबद्धता, मेहनत और लोगों के प्रति सच्चे प्यार के साथ यह दुर्लभ सम्मान अर्जित किया है। 2010 बैच की आईएएस अधिकारी देवराजन को 2017 में तेलंगाना के आदिलाबाद जिले में तैनात किया गया था और पिछले साल फरवरी में उनके स्थानांतरण पर, एक आदिवासी समूह ने उनके प्रति प्यार और सम्मान दिखाते हुए जिले में एक गांव का नाम उनके नाम करते हुए ‘दिव्यगुडा’ रखा।
दिव्या तेलंगाना सरकार में कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुकी हैं। वह तेलंगाना सरकार में ‘एकीकृत आदिवासी विकास एजेंसी’ में प्रोजेक्ट अधिकारी, भोंगीर की उप-जिलाधिकारी, अदिलाबाद जिले की कलेक्टर और ‘महिला, बाल, विकलांग और वरिष्ठ नागरिक विभाग’ की सचिव और आयुक्त रह चुकी हैं। वर्तमान में वो तेलंगाना के राज्य महिला और बाल विभाग के आयुक्त के पद पर सेवारत हैं।
आदिवासियों का संघर्ष और दिव्या का करिश्मा
जब दिव्या ने जिले का कार्यभार संभाला, तो यह जगह आदिवासी संघर्ष से गुजर रही थी। आदिवासियों और स्थानीय सरकारी निकायों के बीच अविश्वास के कारण जिले के लिए यह बहुत ही मुश्किल वक्त था और वहां कुछ भी आसान नहीं लग रहा था। वह जानती थी कि इस स्थिति से बाहर निकलने का एकमात्र तरीका संवेदनशील होकर और एक ऐसा माहौल बनाना है, जहां बिना किसी बाधा के अवरोध मुक्त संचार हो सके और लोग एक-दूसरे से सलीके से बातचीत कर समस्याएं समझ सकें, जिससे कि उनका हल निकाला जा सके। चूंकि आदिवासी आबादी ज्यादातर गोंड थी और वे गोंडी बोलते थे, इसलिए सबसे पहले उन्होंने भाषा सीखना शुरू किया।
गोंडी भाषा सीख ली!
लेकिन अन्य अधिकारियों के विपरीत, वह सिर्फ गोंडी भाषा की मूल बातों या यूं कहें कि काम चलाऊ तरीके पर नहीं रुकी। बल्कि लोगों के लिए कुछ करने के दृढ़-संकल्प के तहत वह अपने प्रयासों से तीन महीने में इस भाषा में निपुण हो गई।
भाषा सीखने से उसकी यात्रा आसान हो गई। अब उन्होंने लोगों के साथ प्रभावी ढंग से संवाद करना शुरू किया और उनकी समस्याओं को सुना। इससे उन्हें आदिवासियों के बीच एक विश्वास पैदा करने में मदद मिली। वे अपनी समस्याएं लेकर उनके पास जाने लगे। उनके द्वारा इस सरल प्रयास के कारण ‘पंचायतों’ का पूरा परिदृश्य बदल गया। लोग अपने लिए खुलकर बोलने लगे। और तब तक, दिव्या जान चुकी थीं कि मुख्य मुद्दा भाषाई अवरोध का है और एक बार यह हल हो जाने के बाद यहाँ के लिए विकास की सीढ़ी पर चढ़ना आसान होगा। इसलिए, उन्होंने सरकारी अस्पतालों और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर आदिवासी समन्वयक (संयोजक), भाषा अनुवादक नियुक्त किए। इससे प्रशासनिक कार्यालय आदिवासियों के लिए अधिक सुलभ हुआ और उनकी पहुंच में आ गया।
विनम्र पृष्ठभूमि
दिव्या स्वयं एक और जमीनी और विनम्र पृष्ठभूमि से आती हैं। बहुत लंबे समय तक, उनके परिवार की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर थी क्योंकि उनके दादा एक किसान थे। उन्होंने उन्हें संघर्ष करते देखा रखा था। इसलिए यूपीएससी को पास कर आईएएस बनने का मुख्य लक्ष्य समस्याओं को हल करना और जरूरतमंदों के लिए हमेशा खड़े होना था। राज्य के भोंगीर शहर में एसडीएम के रूप में अपनी पहली पोस्टिंग से, उन्होंने ‘समाधान निकालने के दृष्टिकोण’ के साथ काम किया है। वहां उन्होंने बड़ी संख्या में प्रवासी आदिवासियों को ‘इरुकू-आईएएस’ के नाम से एसटी प्रमाणपत्र जारी किया।
आदिलाबाद में किए शानदार काम
उन्होंने इसी जुनून के साथ आदिलाबाद के लोगों के लिए भी काम किया। जिले में टकराव और संघर्ष के अलावा बढ़ती अशिक्षा, बेरोजगारी की उच्च दर, स्वच्छता, सिंचाई, स्वास्थ्य और बाढ़ जैसी बुनियादी समस्याएं भी मूंह बाए खड़ी थीं। बढ़ते टकराव की स्थिति को सुलझाने के लिए काम करते हुए दिव्या ने इन सभी मुद्दों पर भी विचार किया। वह उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलने जाती थीं और बदलाव को उनके लिए बाध्यकारी बनाने के बजाय, व्यक्तिगत रूप से उनके मुद्दों को जानने की कोशिश करती थीं।
वह उनके सांस्कृतिक उत्सवों में भाग लेती थीं और उनके बीच परिवार के सदस्य की तरह मानी जाती थीं। उन्होंने उस क्षेत्र की भूमि को समतल करने के लिए कदम भी उठाए, जो बाढ़ क्षेत्र के लिए बहुत ही उन्मुख थे। यहां तक कि दिव्या ने उन मुद्दों को हल करने में भी मदद की, जो दशकों से लंबित थे। अधिकांश किसान जिले में कपास उगा रहे थे, दिव्या ने उन्हें अपने उत्पाद के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त करने में बहुत मदद की।
आदिवासियों की संस्कृति के लिए किए काम
हमारे देश के अधिकतर आदिवासी क्षेत्रों की तरह, आदिलाबाद के लोग भी अपने कानूनी और संवैधानिक अधिकारों से अनजान थे। उन्होंने उनके अधिकारों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए समूह बैठकें आयोजित कीं। यहां तक कि उन्होंने पीईएसए (पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार, 1996 अधिनियम) समन्वयकों को नियुक्त किया, जिन्होंने जनजाति को उनके अधिकारों और उनके उपयोग करने के तरीकों को सीखने में मदद की। उन्होंने आदिवासी समुदायों की संस्कृति को बचाए रखने के लिए भी प्रयास किए।
दिव्या ने ‘डंडारी-गुसाड़ी’ और ‘नागोबा जात्रा’ जैसे उनके मुख्य त्योहारों में भाग लिया और एक वृत्तचित्र के रूप में उनकी परंपराओं का दस्तावेजीकरण करने के लिए अपना आधिकारिक समर्थन दिया। और ये सभी असंख्य प्रयास व्यर्थ नहीं गए। आदिलाबाद के लोग अभी भी उन्हें याद करते हैं और उनके जैसे ही किसी दूसरे अधिकारी की वहां आने की उम्मीद रखते हैं। दिव्या के स्थानांतरण के वक़्त, उन लोगों ने उन्हें एक अश्रुपूर्ण विदाई दी और एक ऐसा सम्मान दिया, जो अद्वितीय है। हमें उम्मीद है कि दिव्या जैसी नेकदिल अधिकारियों का यह सफर यूं ही अनवरत जारी रहेगा और सिस्टम से तंग आ चुके आम आदमी की जिंदगी में दुश्वारियां कम होंगी।
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