सरकारी कामों में क्यों आती हैं अड़चनें
- Anil Swarup
- Published on 26 May 2023, 5:03 pm IST
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हाइलाइट्स
- पूर्व कोयला और स्कूली शिक्षा सचिव अनिल स्वरूप ने 5सी पर नियंत्रण रखने वालों को ठहराया जिम्मेदार
- वह कहते हैं कि इन सभी संस्थानों पर नेताओं का नहीं, बल्कि अफसरों का है नियंत्रण, यह वही अधिकारी हैं जो बनाते हैं विकास को रोकने वाले माहौल
- स्वरूप देश के पूर्व सीएजी विनोद राय की आलोचना करते हैं, साथ ही वह अदालतों को भी नहीं बख्शते
5सीः सिर्फ नेताओं पर दोष मढ़ने से क्या होगा, 5सी भी फैसले लेने में बाधा डालते हैः कोयला सचिव
यह एक प्रमुख दैनिक अखबार की हेडलाइन थी, जिस पर प्रतिक्रियाओं की सुनामी आ गई। शायद लगभग सभी ने इसे महसूस किया हो, लेकिन इसे कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी। यह सब मेरी फेसबुक और ट्विटर पर की गई छोटी टिप्पणियों के साथ शुरू हुआ था- ‘विकास की गति पर बेईमानों का उतना प्रभाव नहीं पड़ता, जितना उन कारकों का पड़ता है जो ईमानदारों को निर्णय लेने से रोकते हैं।’
यह वर्ष 2016 की बात है। तब मुझे भारत सरकार का कोयला सचिव बनाया गया था। मैंने जो कहा था उस पर मुझे सच में विश्वास था और यह बहुत तेजी से वायरल हो गया। हालांकि, फेसबुक पर बाद की व्याख्या प्रतिक्रिया का कारण बनी, क्योंकि इसने देश में शासन को प्रभावित किया था।
हम बहुत आसानी से सभी बुराइयों के लिए नेताओं को दोष दे देते हैं। हालांकि, क्या यह सच नहीं है कि 5सी यानी सीबीआई, सीवीसी, सीएजी, सीआईसी और कोर्ट विकास को प्रभावित करने वाले त्वरित और प्रभावी निर्णय लेने के लिए एक अवरोध वाला वातावरण बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं? विडंबना यह है कि इन सभी संस्थानों पर नेताओं का नहीं, बल्कि नौकरशाहों का नियंत्रण है।
इतना कहना भर था कि इसके समर्थन में प्रतिक्रियाओं की बाढ़-सी आ गई। एक पूर्व कैबिनेट सचिव ने टिप्पणी की, ‘अनिल स्वरूप हाजिर हैं। मामले को बदतर बनाने के लिए, इन पांच सी ने पिछले कुछ सालों में अधिक से अधिक चर्चा बटोरनी शुरू कर दी है।’ सत्ता के करीबी माने जाने वाले एक सचिव ने टिप्पणी की, ‘आपने फेसबुक पर बहुत ही साहसिक बयान दिया है। बधाई!’ एक अन्य सचिव ने भी इस पर स्पष्ट रूप से लिखा, ‘अनिल बधाई, वास्तव में एक साहसिक बयान। आप ‘नौकरशाह’ की छवि बदल रहे हैं।’ विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के एक पूर्व राजदूत ने इस पर चुटकी लेते हुए कहा, ‘शाबाश, अनिल। तुमने सिर पर ही हथौड़ा मार दिया है।’ सीबीआई के साथ काम कर चुके एक रिटायर आईएएस अधिकारी भी इस कथन से सहमत थे। उन्होंने लिखा, ‘सीबीआई के अपने काफी लंबे अनुभव के साथ, मैं अनिल के दृष्टिकोण का पूर्ण समर्थन करता हूं।’ केंद्रीय अर्धसैनिक बल का नेतृत्व करने वाले एक आईपीएस अधिकारी ने भी टिप्पणी की, ‘वह सही हैं। हमने इस बिंदु पर अक्सर चर्चा की है। हमारा देश ही एकमात्र ऐसा देश है, जहां उपरोक्त संस्थाएं ही खिलाड़ियों की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं या इसे दूसरे तरीके से कहें तो इलाज करने वाले डॉक्टर की तुलना में पोस्टमार्टम करने वाले अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।’
इन सब में सबसे दिलचस्प बात यह रही कि उसमें लिए एक सी का मतलब सीएजी था। सीएजी के एक पूर्व डीजी ने भी मुझे इस मुद्दे को उठाने के लिए बधाई दी। उन्होंने लिखा, ‘सरकार में अच्छे और तेज फैसलों में बाधक प्रासंगिक मुद्दों को उठाने के लिए बधाई।’
कुछ केंद्रीय मंत्रियों ने भी इस मुद्दे को उठाने के लिए मुझे बधाई देते हुए फोन किया।
जब मैं नौकरी में था, तब मैंने यह मुद्दा उठाया। इन संस्थानों को संचालित करने वाले कुछ लोग ‘चर्चा में रहने’ के लिए हद से काफी आगे बढ़ गए थे। सिविल सेवा में पीछे छूट गए लोगों के बीच पहल को खत्म कर दिया और निर्णय लेने को और अधिक कठिन बना दिया था। कोई आश्चर्य नहीं कि अतीत में एक सीएजी और उनके जैसों द्वारा की गई तबाही से शासन को नुकसान उठाना पड़ा और लगातार भुगतना पड़ा। यह कोयला मंत्रालय में स्पष्ट था, जहां मैंने भीषण विनाश के बाद कुछ निर्माण कार्य की मांग की थी।
साल 2014 में यह काफी मुश्किल काम था। जब एक लुटेरे सीएजी ने जो किया था, उसके बाद वाकई यह आसान नहीं था। उसने राष्ट्रीय खजाने को नुकसान का गलत अनुमान लगाया और फिर सुर्खियां बटोरने के बाद लाभ भी हासिल कर लिया।
इस जानकारी को एक नौकरशाह की नैतिक दुविधा के रूप दर्शाया गया है। इसमें कहा गया है कि सीएजी ने अपनी किताब ‘नॉट जस्ट एन अकाउंटेंट’ में सही दावा किया था कि वह सिर्फ एक अकाउंटेंट नहीं थे।
हालांकि, यह भी सच है कि उन्होंने विनाशकारी परिणामों के साथ एक अकाउंटेंट की तरह ही रिपोर्ट किया। उनके गलत अनुमानों ने कोयला क्षेत्र को लगभग बरबाद कर दिया। नौकरशाहों को सबसे अधिक क्षति हुई। ‘राय इफेक्ट’ काफी विनाशकारी था। महत्त्वपूर्ण फाइलों पर अफसरों ने अड़ियल रवैया अपनाना शुरू कर दिया। वे सुरक्षित खेलने लगे। देश अभी तक उस प्रभाव से उबर नहीं पाया है।
सीबीआई और सीवीसी ने फाइलों का जिस तरह पोस्टमार्टम किया, उससे भी अधिकारियों को फाइलों पर खुद का कमिटमेंट दिखाने से रोका। विडम्बना यह है कि इन संगठनों के कारण पिस रहे नौकरशाह अब अपने नए ‘अवतार’ में फाइलों की जांच करते हैं। इससे एक घाटा हुआ कि अधिकारी अब उस संदर्भ से पूरी तरह से बेखबर हैं, जिसमें निर्णय लिए जाते हैं। इसके अलावा, वे इन पदों पर प्राप्त होने वाले ज्ञान का आनंद लेते हैं। इस तरह के दृष्टिकोण ने एक ऐसी संस्कृति बनाई है, जहां निर्णय लेने की तुलना में निर्णय न लेना अधिक सुरक्षित है। इसके अलावा, अधिकारियों के राजनीतिक क्रॉस-फायर में फंसने के कई मामले सामने आए हैं। फिर ‘पिंजरे में बंद तोता’ अपने राजनीतिक आकाओं की धुन गाता है। इससे मामला और भी बिगड़ जाता है।
हमारे देश की अदालतें ही अंतिम निर्णायक मानी जाती हैं और वे किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। कुछ हाई कोर्ट तो स्टे कोर्ट बनकर रह गए हैं। इसके कारण उन्हें आसान राह पकड़ने की अनुमति मिल जाती है। फिर बेशक अदालत की अवमानना से संबंधित प्रावधान हैं, जो सभी पर समान रूप से लागू नहीं होते हैं। आप वास्तव में नहीं जानते हैं कि आपके कौन से कार्य या टिप्पणी को अवमानना माना जाएगा। निष्क्रियता से अदालतों में आपके परेशान होने की संभावना कम से कम रहती है।
सीवीसी यानी मुख्य सूचना आयुक्त ‘अवरोधक’ के सबसे निचले स्थान पर हैं। लगातार जानकारी मांगना एक तरह का उत्पीड़न हो सकता है।
दुर्भाग्य से, इन प्रतिष्ठित संस्थानों ने एक ऐसा वातावरण बना दिया है, जिसमें कुछ भी न करना सबसे सुरक्षित प्रतीत होता है। कई नौकरशाह इस रणनीति को अपनाते हैं। बड़ी संख्या में ऐसे नौकरशाह हैं, इस तरह सुरक्षित खेलते हुए अपने करियर में सफल होते हैं। यह उन लोगों के लिए और भी कठिन हो जाता है, जो चीजों को सही तरीके से करना चाहते हैं। हालांकि, जूलियस रिबेरो, एमएन बुच, ई श्रीधरन, योगेंद्र नारायण, बीके चतुर्वेदी और जीके पिल्लई जैसे कई ऐसे अफसर रहे हैं, जिन्होंने 5 सी के बावजूद काम किया और बेहतर काम किया। आज भी कई ऐसे अधिकारी हैं, जो इन बाधाओं के बावजूद अद्भुत काम कर रहे हैं।
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