खास रिपोर्ट: कैसे महुआ बीनने वाले आदिवासियों की जिंदगियां बदल रहा है छत्तीसगढ़ वन विभाग!
- Ayodhya Prasad Singh
- Published on 2 Nov 2021, 10:01 am IST
- 1 minute read
हाइलाइट्स
- छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के जीवन में महुआ का विशेष महत्व
- महुआ का अब विदेशों में हो रहा निर्यात
- वन विभाग के प्रयासों से खाद्य ग्रेड में आया महुआ
- महुआ (वानस्पतिक नाम : मधुका लोंगिफोलिया फूल) एक भारतीय उष्णकटिबन्धीय वृक्ष है झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा आदि में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। (क्रेडिट: सोशल मीडिया)
छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के लिए महुआ विशेष महत्व रखता है। चाहे महुआ का पेड़ हो या उसके फल, या महुआ के बीज, आदिवासियों के लिए ये सभी उनकी आमदनी का प्रमुख जरिया हैं। आदिवासी जंगलों से महुआ बीनते हैं और फिर उन्हें सुखाते हैं, उसके बाद इन्हें बेच देते हैं। आदिवासियों के बहुत से परिवार महुआ पर ही निर्भर हैं। लेकिन पुराने तरीकों से इनकी खेती और व्यापार करने से मुनाफा बहुत ही सीमित था और किसी तरह बस गुजारा हो पाता था।
लेकिन हाल ही में पहली बार महुआ का निर्यात विदेशों में किया गया है। इसकी एक खेप फ्रांस भेजी गयी है। वहीं छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार और अधिकारियों की मदद से महुआ को आधुनिक तरीके से उपजाया और इकठ्ठा किया जा रहा है, जिससे आदिवासियों के जीवन में बहुत से बदलाव आए हैं।
महुआ के पेड़
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में तैनात आईएफएस तेजस शेखर ने ट्विटर पर लिखते हैं, “छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में औसतन प्रत्येक परिवार के पास 5-7 महुआ पेड़ों का अधिकार हैं, इन्हीं से वे सालाना महुआ के फूल एकत्रित करते हैं। ये गूदेदार (फ्लेशी) फूल, अंडाकार आकार और हल्के पीले रंग के होते हैं और हर साल फरवरी और मई के बीच पेड़ों से गिरते हैं।”
इन फूलों को बीनकर इकठ्ठा करने का तरीका भी अजीब है। तेजस शेखर बताते हैं, “महुआ के फूलों को पेड़ के नीचे जमीन में आग लगाकर इकट्ठा किया जाता है, जिससे कि काली जली हुई जमीन पर ये खूबसूरत सफेद छोटे फूल आसानी से दिखाई दें। हालांकि बस्तर के आदिवासी परंपरागत रूप से इन फूलों को इकट्ठा करने के लिए जमीन पर आग नहीं लगाते थे, यहां यह प्रथा बाद में शुरू हुई।”
लेकिन महुआ के लिए लगाई जाने वाली आग, मध्य भारत के जंगलों में लगने वाली आग का एक प्रमुख कारण है, जिससे जंगलों, जैव विविधता और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचता है।
तेजस बताते हैं, “एकत्र किए गए फूलों को फिर सुखाया जाता है और शराब बनाई जाती है। इन फूलों को बाजारों में भी बेचा और खरीदा जाता है। आदिवासी पारंपरिक तरीकों के तहत इन्हें कम से कम एक साल तक सुरक्षित रखने के लिए कुसुम के पत्तों (कुसुम लीव्स) का उपयोग करते हुए सूखे महुआ के फूलों को वायुरोधी (एयरटाइट) तरीके से स्टोर करते हैं।”
जमीन से इकठ्ठा किए गए महुआ के फूलों में बहुत सारे धूल के कण और गंदगी होती है, इसीलिए इस तरह के फूल सिर्फ शराब बनाने के लिए ही उपयुक्त होते हैं। खाद्य ग्रेड यानी खाने के पदार्थों में इन्हें अनिवार्य रूप से नहीं रखा जाता है। जिस प्रक्रिया के तहत चावल की भूसी हटाई जाती है, आदिवासी उसी प्रक्रिया के माध्यम से महुआ से धूल और कीचड़ भी हटाते हैं। ऐसे फूलों को ‘पू-दा-ए’ (‘Poo-daa-ee’) महुआ कहा जाता है।
बदलाव
लेकिन आज के समय में छत्तीसगढ़ में वन विभाग पेड़ों के नीचे जाल लगाकर महुआ इकट्ठा करने में लगा है। इससे एकदम स्वच्छ महुआ संग्रहित होता है, वहीं पेड़ों के नीचे कोई आग भी नहीं लगानी पड़ती है। इसलिए जंगल में आग का खतरा भी कुछ हद तक कम हुआ है। इस सबके साथ ही जाल लगाने से आदिवासियों को महुआ बीनने के घंटों के कठिन परिश्रम से भी मुक्ति मिली है।
तेजस बताते हैं, “महुआ बीनने वाले अधिकतर आदिवासी महिलाएं हैं। महिलाएं इन फूलों को इकट्ठा करने के लिए गर्मी की चिलचिलाती धूप में भी पूरा दिन परिश्रम करती रहती थीं।”
लेकिन इसके बाद भी जब बदले में आमदनी बहुत कम होती है, तो परिवार को नुकसान उठाना पड़ता क्योंकि वे महुआ बीनने के मौसम के दौरान अन्य आर्थिक अवसरों से चूक जाते हैं। पर वन विभाग द्वारा छत्तीसगढ़ में जाल लगाकर महुआ बीनने की प्रक्रिया अपनाने के बाद अब खाद्य ग्रेड महुआ एकत्र किया जाता है और इससे उसके मूल्य में भी बड़ी वृद्धि हुई है।
उपयोग
अब स्वयं सहायता समूहों (SHGs) के माध्यम से महुआ जैम, लड्डू, एनर्जी बार, कुकीज बनाए जाते हैं। इस सबसे बढ़कर इन प्रयासों का असर यह हुआ है कि महुआ के फूलों की पहली खेप फ्रांस को निर्यात की गई है।
इसमें कोई शक नहीं है कि महुआ के फूलों की मादक खुशबू बस्तर की सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराओं में गहराई से रची-बसी हुई है। अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक, महुआ का पेड़ छत्तीसगढ़ की जनजातियों के जीवन और आजीविका का प्रमुख हिस्सा है।
END OF THE ARTICLE