नूंह और मणिपुर हिंसा पर बोले जम्मू-कश्मीर के पूर्व डीजीपी शेष पॉल वैद: दंड हमलावरों को दें, पीड़ित को नहीं
- Jonali Buragohain
- Published on 8 Aug 2023, 10:48 pm IST
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हाइलाइट्स
- एसपी वैद 2016-2018 तक जम्मू-कश्मीर के डीजीपी थे
- वह 1986 बैच और जम्मू-कश्मीर कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं
- वह कई बार आतंकियों के हमले में बाल-बाल बचे
जम्मू-कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) शेष पॉल वैद एक सख्त पुलिस अधिकारी रहे हैं। इतने सख्त कि सिर में लगी गोली भी उन्हें तोड़ नहीं सकी थी। यह 1999 की बात है। तब वह बारामूला रेंज में डीआईजी थे। उनकी बुलेट-प्रूफ कार पर आतंकवादियों ने एक-47 के बजाय कांच को छेदने वाली यूनिवर्सल मशीन गन से हमला कर दिया था। वह गंभीर रूप से घायल हो गए। एक गोली उनकी सिर में फंस गई। हालांकि यह उन्हें रोक नहीं सकी। उन्होंने अस्पताल के बिस्तर से ही काम करना शुरू कर दिया। अस्पताल को ही अपना अस्थायी कार्यालय बना लिया। वहीं से उन्होंने जूनियर अफसरों को आदेश देने लगे। उन्हें बताया कि मुखबिरों से मिलने के लिए कहां और कब जाना है और छापेमारी करनी है।
यह उन पर चौथा आतंकवादी हमला था। उन्होंने एक बार मीडिया से कहा था कि उन्हें हमेशा सबसे अधिक प्रभावित जिलों में तैनात किया जाता है। शायद इसलिए कि राज्य प्रशासन को उनकी क्षमताओं पर भरोसा था। उन्हें अधिकतम सुरक्षा वाली कोट भलवाल जेल के दंगाई कैदियों को कंट्रोल में करने का श्रेय दिया जाता है, जिन्होंने हिंसा का सहारा लिया था, क्योंकि कुछ आतंकवादियों को दूसरी जेल में ले जाया गया था।
अधिकारी ने बुरहान वानी की हत्या के बाद सबसे कठिन और गंभीर स्थिति में गजब के साहस के साथ जम्मू-कश्मीर पुलिस का नेतृत्व किया। तब 2016 में सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया था। उन्होंने 1995 में ग्राम रक्षा समितियों (अब वीडीजी के रूप में जाना जाता है) और ऑपरेशन ऑल आउट को शुरू करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 2017 में यह ऑपरेशन भारतीय सेना, सीआरपीएफ और अन्य सीएपीएफ के साथ चला गया था। पुलिस-पब्लिक संबंधों को बेहतर बनाने के लिए प्रत्येक पुलिस स्टेशन, सब डिविजन और जिले में पीसीपीजी यानी पुलिस सामुदायिक भागीदारी समूह (पुलिस कम्युनिटी पार्टनरशिप ग्रुप) की शुरुआत भी उन्हीं के दिमाग की उपज थी।
श्री वैद के पास आतंकवादियों और सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील स्थितियों से निपटने का लंबा अनुभव है। इंडियन मास्टरमाइंड्स को दिए विशेष इंटरव्यू में उन्होंने नूंह और मणिपुर के हालात पर अपने विचार बताए, जहां हाल ही में समुदायों के बीच हिंसक झड़पें देखी गई हैं।
क्या नूंह में स्थिति से निपटने में प्रसीजरल खामियां हुई हैं?
बिल्कुल। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है। दंगों के कुछ दिन पहले से ही सोशल मीडिया भड़काऊ पोस्ट से भरा हुआ था। अगर किसी झड़प की आशंका थी, तो जुलूस को अलग रास्ते से जाने देना चाहिए था। और, एक बार रास्ते के लिए अनुमति मिल जाने के बाद यह प्रशासन की जिम्मेदारी थी कि कोई हमला ना हो। इसके लिए पर्याप्त संख्या में पुलिसकर्मी तैनात करना चाहिए था। साथ ही, एहतियाती गिरफ्तारियां होनी चाहिए थीं। साथ ही सोशल मीडिया पर प्रदर्शित पत्थर, तलवार, हथियार जैसी सभी आपत्तिजनक सामग्री जब्त की जानी चाहिए थी। जब जुलूस पर हमला हुआ, तो प्रशासन ने भी कोई कार्रवाई नहीं की। उन्हें गोली चलानी चाहिए थी। प्रोटोकॉल कहता है कि जहां आप सामान्य कानून के आदेश से निपट रहे हैं, कम से कम फोर्स का उपयोग करना है। लेकिन सांप्रदायिक दंगों के मामले में समाज को बड़े नुकसान से बचाने के लिए अधिक से अधिक फोर्स का उपयोग किया जाना चाहिए। खुफिया और प्रशासन दोनों को निष्क्रियता के लिए जवाबदेह बनाना चाहिए।
जवाबदेही तय करने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
उच्च स्तरीय जांच का आदेश देना चाहिए। जो कोई भी पर्याप्त सुरक्षा और पर्याप्त बलों की तैनाती में लापरवाही करता पाया जाए, उसे जवाबदेह बनाना चाहिए। चाहे वह डीएम हो या एसपी, या विशेष शाखा या खुफिया ब्यूरो। जो बहुमूल्य जिंदगियां खो गईं, बहुत से लोग घायल हुए और संपत्तियों को जो नुकसान पहुंचा, उसके लिए जवाबदेही तय होनी ही चाहिए।
मीडिया में ऐसी रिपोर्ट आई हैं कि हिंसा की आशंका के बारे में लोकल खुफिया जानकारी थी। यदि ऊपर से कोई स्पष्ट निर्देश नहीं आता है, तो क्या ऐसी स्थिति में लोकल पुलिस खुद कार्रवाई कर सकती है?
मुझे नहीं लगता कि ऐसी स्थिति में कार्रवाई के लिए पुलिस को निर्देश की जरूरत है। एक बार जब वे सतर्क हो जाते हैं, तो यह सुनिश्चित करना उनका कर्तव्य है कि हिंसा नहीं हो। हर कोई कानून के प्रति जवाबदेह है। उन्हें निर्देश का इंतजार क्यों करना चाहिए?
जैसा कि आपने पहले बताया, सोशल मीडिया भड़काऊ पोस्टों से भरा पड़ा है जो लोगों को हिंसा के लिए उकसाते हैं। पुलिस को ऐसे खतरे से कैसे निपटना चाहिए?
यह हमारे देश के सामने सबसे बड़ा खतरा है। मैं चिंतित हो जाता हूं कि मेरा देश कहां जा रहा है। सोशल मीडिया पर किसी भी तरह की सांप्रदायिक पोस्ट अपलोड करने वालों के खिलाफ पुलिस को तुरंत मामला दर्ज कर एक्शन लेना चाहिए। अदालतों को भी उनके प्रति कोई नरमी नहीं दिखानी चाहिए। नूंह के मामले में अगर पुलिस ने सोशल मीडिया पर सांप्रदायिक जहर फैलाने वालों को तुरंत गिरफ्तार कर लिया होता, तो दंगे रोके जा सकते थे।
हमारे देश में दंगा कोई नई बात नहीं है। फिर भी हम पुलिस को इनसे निपटने में बार-बार कमजोर पड़ते हुए देखते हैं। क्या पुलिस में व्यापक सुधार की जरूरत है?
ना केवल पुलिस में, बल्कि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के सभी पहलुओं में सुधार की फौरन जरूरत है। अब समय आ गया है कि भारत सरकार और सुप्रीम कोर्ट इस सुधार को लाने के बारे में सोचें। हमारी अदालतों में करोड़ों मामले पेंडिंग हैं। हमें क्रिमिनल मामलों की प्रक्रिया को सरल बनाना चाहिए। यह देखना चाहिए कि जांच एक महीने के भीतर पूरी हो और एक साल के भीतर फैसला आ जाए। बार-बार स्टे नहीं दी जानी चाहिए।
लेकिन क्या यह वास्तव में संभव है?
क्यों नहीं? हमें देखना होगा कि देरी का कारण क्या है और उन बाधाओं को दूर करना होगा। पीएम मोदी के विकास अभियान के अनुरूप भारत सभी मोर्चों पर आगे बढ़ रहा है। पुलिस और ज्यूडिशियल फ्रंट पर भी क्यों नहीं? पुलिस और क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में सुधारों के लिए जस्टिस मलिमथ समिति की सिफारिशों को पूरा लागू किया जाना चाहिए। जस्टिस में देरी जस्टिस नहीं मिलने के समान है।
तत्काल जस्टिस के नाम पर मकानों पर बुलडोजर चलाना, मुठभेड़ आदि को आप कैसे देखते हैं?
मैं शीघ्र जांच और तत्काल सुनवाई चाहता हूं। यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि अपराधी छूट जाते हैं और लोगों को न्याय नहीं मिलता। सिर्फ क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की विफलता के कारण। हालांकि, उचित प्रोसेस को फॉलो करना पुलिस का फर्ज है।
क्या हमारे देश में पुलिस कम प्रो-एक्टिव और अधिक रिएक्टिव हो गई है?
भारत जैसे जटिल देश में पुलिस व्यवस्था बनाए रखना बहुत अधिक कठिन काम हो गया है। विशेष रूप से पाकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसियों और अंतरराष्ट्रीय ताकतों और जॉर्ज सोरोस जैसे लोगों के कारण। वे ऐसे हालात पैदा करने के लिए पैसा खर्च करते हैं, जैसा कि हमने नूंह और मणिपुर में देखा है।
नूंह और मणिपुर दोनों जगहों पर हिंसा में कुछ पुलिस वालों की भागादारी के आरोप भी लगे हैं?
मैं मणिपुर पर टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा, क्योंकि मुझे राज्य की स्थिति के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। मैं बस इतना कहूंगा कि पुलिस वाले भी इसी समाज से आते हैं, इसलिए उन पर भी असर पड़ता है। इसलिए उनमें भी ऐसी सोच का आना नेचुरल है। लेकिन पुलिस प्रमुख, रेंज डीआइजी या एसपी जैसे बड़े अधिकारियों से तटस्थ रहना चाहिए। उनसे अपराधों पर अपनी खुद की राय बनाने की उम्मीद की जाती है।
आपके अनुसार, आगे ऐसी सांप्रदायिक और जातीय हिंसा से बचने का रास्ता क्या है?
इसका एकमात्र उपाय यही है कि निष्पक्ष जांच हो। तुरंत गिरफ्तारी हो और अपराधियों को अदालत में चालान किया जाए। उसके बाद कोर्ट को फैसला करने दीजिए। पुलिस से भी अपेक्षा की जाती है कि वह जज की तरह तटस्थ और निष्पक्ष हो। उन्हें पूरी तरह से वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर चलना चाहिए।
पुलिस वालों में ध्रुवीकरण के बारे में क्या कहेंगे? जैसे हाल ही में जयपुर-मुंबई ट्रेन में एक वर्दीधारी ने गोलीबारी की।
आज ध्रुवीकरण हो रहा है, क्योंकि सोशल मीडिया का इस्तेमाल एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ करने के लिए किया जा रहा है। इसलिए हमें पुलिस कर्मियों के लिए लगातार ट्रेनिंग प्रोग्राम चलाने की आवश्यकता है। ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनकी निष्पक्षता पर कोई दाग ना लगे।
हालांकि, यह एक काल्पनिक सवाल है अगर यदि आप हरियाणा और मणिपुर के डीजीपी होते तो स्थितियों को कैसे संभालते?
किसी भी अपराधी को बख्शा नहीं जाता। चाहे वे मणिपुर में मैतेई या कुकी हों, या नूंह में मुस्लिम या हिंदू। सजा हमलावर को दी जानी चाहिए, पीड़ित को नहीं। पीड़ितों की सुरक्षा करनी ही होगी। आपको अपने व्यवहार में बहुत निष्पक्ष होना होगा। साथ ही एक्शन में बहुत सख्त होना होगा। कानून के अनुसार आगे बढ़ना होगा। समय पर कार्य करना होगा! हरियाणा पुलिस अब अच्छा काम कर रही है। उन्होंने कई एफआईआर दर्ज की हैं और कई गिरफ्तारियां भी की हैं। काश, उन्होंने ऐसा पहले दिन ही कर लिया होता। इससे स्थिति को बिगड़ने से रोका जा सकता था।
हाल ही में उत्तर प्रदेश में आईपीएस अधिकारी प्रभाकर चौधरी ने बिना मंजूरी वाले रास्ते से जुलूस निकालने की कोशिश कर रहे कुछ कांवरियों के खिलाफ कार्रवाई की। इसके 4-5 घंटे के भीतर ही उन्हें बरेली के एसपी पद से हटा दिया गया। क्या आपको लगता है कि इस तरह की कार्रवाई से पुलिस अफसरों का मनोबल गिरेगा और वे सही कदम उठाने से बचेंगे?
ट्रांसफर करना राज्य सरकार का विशेषाधिकार है। मेरा मानना है कि किसी को अपने विवेक के मुताबिक और कानून के मुताबिक काम करना चाहिए। ट्रांसफर के बारे में चिंता ना करें. ज्यादा से ज्यादा आपको दूसरे पद पर भेज दिया जाएगा। लेकिन, आप जहां भी जाएं अच्छा काम करते रहें।
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