बदलाव का नायक: आईएएस अधिकारी जो लोगों को उनकी जमीनों के रास्ते दे रहा है!
- Ayodhya Prasad Singh
- Published on 20 Oct 2021, 2:50 pm IST
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हाइलाइट्स
- ‘दिल और दिमाग में हमेशा ये बात रखिये, दूसरों की मदत करने के लिए जज्बात रखिये’- एक अधिकारी जो हर परिस्थिति में अपने लोगों की मदद के लिए तैयार रहते हैं
- उन्हें साहित्य और फोटोग्राफी से बेइंतहा लगाव है, उन्हें 'विद्याप्रवाहिनी' और 'चरण-पादुका' जैसे बेहतरीन अभियानों के लिए देश भर में ख्याति प्राप्त है
- इस सबसे बढ़कर, उन्होंने हमारे अन्नदाता किसानों के लिए उनकी जमीनों के रास्ते खोले हैं
- जानिए कैसे एक किसान के बेटे ने कलेक्टर बन शुरू किया 'रास्ता खोलो अभियान'! इंडियन मास्टरमाइण्ड्स की खास रिपोर्ट!
- सड़क को अवरोध मुक्त कराने के बाद अपनी टीम के साथ जे.के. सोनी
मुंबई के बृहन्मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) के पूर्व उपायुक्त डॉ. जी. आर. खैरनार के बारे में तो आपने सुना ही होगा। मध्य-वर्ग के नायक की छवि रखने वाले खैरनार, महाराष्ट्र की राजधानी में बड़ी संख्या में अवैध निर्माण और भूमि-अतिक्रमण के मामलों को सुलझाने में सफल रहे हैं।
बहुत सालों बाद, 2010 बैच के आईएएस अधिकारी डॉ. जितेंद्र कुमार सोनी ने डॉ. खैरनार की किताब से एक पन्ना चुराया है। इस बार, इसके लाभार्थी राजस्थान में नागौर जिले के लोग हैं। दरअसल किसानों को धरतीपुत्र मानने वाले इस देश में उनको उनकी ही जमीन तक पहुंचने से महरूम किया जा रहा था।
डॉ. सोनी ने उन गरीब किसानों की दुर्दशा को खत्म करने के लिए एक उल्लेखनीय और अनूठा अभियान शुरू किया, जो अपने खुद के खेतों में जाने में सक्षम नहीं थे। ऐसा इसलिए था क्योंकि किसानों को उनके अपने खेतों तक ले जाने वाली सड़कों को गांव के ‘शक्तिशाली और प्रभावशाली’ लोगों ने अवरुद्ध कर दिया था। जरा सोचकर देखिए कि जिस देश की अर्थव्यवस्था और रोजगार में आज भी कृषि का सबसे प्रमुख स्थान हो, वहां के एक राज्य में उन असहाय किसानों पर क्या बीतती होगी जो अपने ही जमीन के टुकड़े पर प्रवेश नहीं कर पा रहे हों! राजस्थान के कई गांवों में दशकों से सड़कों का यह अवरोध बदस्तूर जारी था।
इस समस्या से निजात दिलाने के लिए, डॉ. सोनी ने एक बहुत लोकप्रिय मुहिम ‘रास्ता खोलो अभियान’ शुरू किया है। यह अभियान अपने ‘महिला सशक्तीकरण’ के साथ अहम जुड़ाव की वजह से भी सुर्खियां बना रहा है, क्योंकि आईएएस का यह नवाचार सिर्फ रास्ता खोलने तक ही सीमित नहीं है बल्कि रास्तों का नाम रखने का ढंग भी काफी प्रेरणादायक है। सड़कों के सीमांकन के लिए इस्तेमाल की जाने वाले शिलापट्टों पर शिक्षा या खेलों के क्षेत्र में बहुत अच्छा प्रदर्शन करने वाली लड़कियों के नामों को उकेरा जा रहा है। इस अनूठे विचार ने इस अभियान को एक अलग ही मुकाम पर पहुंचा दिया है।
शुरुआत कैसे हुई!
डॉ. सोनी राजस्थान के हनुमानगढ़ क्षेत्र के एक बहुत छोटे गांव धनसार के रहने वाले हैं। उनके पिता एक किसान थे। उन्होंने भी ऐसी ही स्थिति का सामना किया था और इसलिए वो किसानों के हर रोज के संघर्ष के बारे में बेहतर जानते थे। हाल ही में वह नागौर में तैनात थे, जहां 80 फीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है और उनका पूरा जीवन खेती पर निर्भर करता है।
इंडियन मास्टरमाइंड्स से इस मुद्दे पर बात करते हुए डॉ. सोनी कहते हैं, “किसान खेतों से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। यह उनमें से कईयों के लिए आय का एकमात्र साधन होता है। उस स्थिति में उनकी बेबसी और कमजोरी की कल्पना करें जब उन्हें अपनी ही खेती करने की जगह पर कदम रखने से रोका जा रहा हो, वह भी सिर्फ इसलिए कि गांव में कुछ गुंडों या शक्तिशाली लोगों ने उनका रास्ता अवरुद्ध कर दिया है। वे वहां ट्रैक्टर भी नहीं ले जा सकते। मेरी पोस्टिंग के कुछ दिनों के बाद, मुझे इस ज्वलंत मुद्दे के बारे में पता चला। यह मेरे लिए बहुत अजीब था कि कुछ सड़कें 60 साल तक अवरुद्ध रहीं। मैं तुरंत इसका निदान चाहता था, इसीलिए मैंने यह अभियान शुरू किया।”
अभी यह अभियान उन सड़कों पर ध्यान दे रहा है, जो गांव को कृषि क्षेत्र की भूमि से जोड़ती हैं।
इस मुद्दे की असल जड़ें इतिहास में कहीं हैं। कई मामलों में इसमें ऊंची और निचली जातियों के बीच मतभेद शामिल थे। कार्यक्रम को लागू करते समय उन्हें लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा। वे लोग इतनी आसानी से हार नहीं मानना वाले थे, लेकिन सोनी भी पीछे हटने के मूड में नहीं थे।
उन्होंने स्थिति से निपटने के लिए एक व्यवस्थित योजना बनाई और अपने अधिकार क्षेत्र के सभी 12 एसडीएम को काम पर लगा दिया। प्रत्येक एसडीएम को कम से कम तीन सड़कों को खोलने का काम सौंपा गया था। उन सभी के सामूहिक प्रयासों से कुछ वक्त पहले तक तीन चरणों में लगभग 115 सड़कों को खोल दिया गया है। 31 जुलाई, 2020 को शुरू हुए अभियान के पहले चरण में 38 सड़कों को ‘मुक्त’ कराया गया।
महिला सशक्तिकरण
अन्ब्लाकिंग यानी ‘अवरोधमुक्त’ कृत्य को पूरा करने के बाद, सड़कों के सीमांकन के लिए पत्थरों के शिलापट्ट का उपयोग किया गया, ताकि कोई भी उन पर फिर से अतिक्रमण न कर सके। इन पर ‘अवरोधमुक्त’ सड़कों के बारे में जानकारी उकेरी गई है। जब अभियान शुरू किया जा रहा था, तब डॉ. सोनी ने महिलाओं को सशक्त बनाने और एक प्रेरणा देने के लिए इस मौके का इस्तेमाल करने का फैसला किया। उन्होंने शिलापट्टों का नाम ‘बिटियां गौरव पट्टिका’ रखा, जिसमें अन्य जरूरी जानकारी के साथ-साथ मेधावी लड़कियों के नाम भी लिखे गए।
“चूंकि यह एक ग्रामीण क्षेत्र है, इसलिए यहां साक्षरता दर, खासकर महिलाओं के बीच, बहुत कम है। एक सर्वेक्षण के अनुसार, केवल 47.8% महिलाएं पढ़ और लिख सकती थीं। यह एक समस्या है जिसे एक महीने या साल भर के भीतर हल नहीं किया जा सकता है। इसके लिए लोगों में धीरे-धीरे जागरूकता लाने की जरूरत है। इसलिए जब हम शिलापट्ट लगा रहे थे, तो मैंने सोचा कि क्यों न इसे एक बेहतर उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया जाए। मुझे यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि इसका बहुत अच्छा असर हुआ क्योंकि लड़कियां और उनका परिवार इसके लिए बहुत उत्साहित थे। मुझे उम्मीद है कि इससे लंबी अवधि में फर्क पड़ेगा।”
आईएएस जे.के. सोनी
‘विद्याप्रवाहिनी’ और ‘चरण-पादुका’ अभियान
सोनी 10 से अधिक वर्षों से एक आईएएस अधिकारी के रूप में कार्य कर रहे हैं, और ‘रास्ता खोलो अभियान’ उनकी पहली ऐसी मुहिम नहीं है, जिसके लिए उनकी सराहना होती है। अपने कार्यकाल की शुरुआत में ही उन्होंने अपने अद्वितीय प्रयासों से एक उत्कृष्ट क्षेत्र-अधिकारी बनने के संकेत दे दिए थे।
पाली में जब वह ‘परिवीक्षाधीन अधिकारी’ (प्रोबेशनरी ऑफिसर) के रूप में तैनात थे, उन्होंने ‘विद्याप्रवाहिनी’ नाम से स्कूल-ऑन-व्हील यानी पहियों पर स्कूल कार्यक्रम शुरू किया था। इस कार्यक्रम के तहत, अध्ययन सामग्री के ऑडियो और वीडियो सीरीज बसों में प्रोजेक्टर लगाकर चलाए जाते थे। वह और अन्य अधिकारी भी दो घंटे बच्चों को पढ़ाने के लिए झुग्गी-झोपड़ियों का दौरा करते। इस पहल का लोगों ने दिल से स्वागत किया। वहीं माउंट आबू में एसडीएम के पद पर रहते हुए, उन्होंने ‘नक्की झील’ के कायाकल्प और बेहतर देखरेख के लिए कड़ी मेहनत की।
लेकिन उनका सबसे उल्लेखनीय अभियान ‘चरणपादुका’ था। 2015 में वह जालोर जिले के एक स्कूल का दौरा कर रहे थे। वहां उन्होंने देखा कि स्कूल के कई बच्चों के पास ढंग के जूते नहीं थे। कड़कड़ाती सर्दी में भी बच्चों ने फटे हुए जूते-चप्पल पहन रखे थे। सोनी यह देखकर भावुक हो गए। इसने वास्तव में उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया। लेकिन बहुत जल्द ही उनके कार्यालय ने उनकी टीम के साथ ‘चरणपादुका अभियान’ को ईजाद कर लिया।
उन्होंने सबसे पहले एक सर्वेक्षण किया जिसमें पता चला कि जिले में 25000 बच्चों के पास उचित जूते या चप्पल नहीं हैं। इन परिणामों के बाद, उन्होंने एक कार्यक्रम आयोजित किया जिसमें बच्चों के बीच जूते वितरित किए गए। अब तक इस कार्यक्रम से एक लाख से अधिक छात्र लाभान्वित हो चुके हैं।
जिंदगियां बचाने के लिए रक्षा पदक का सम्मान
जुलाई 2016 में जालोर जिले के कई क्षेत्र भीषण बाढ़ की स्थिति का सामना कर रहे थे। कई घर पानी में डूब गए और लोग इस बुरी स्थिति से बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रहे थे। जब बचाव अभियान चल रहा था, डॉ. सोनी की टीम को आठ ऐसे लोगों के बारे में जानकारी मिली, जो एक निर्जन घर में फंसे हुए थे। उन्हें बाहर निकालने का पहला प्रयास भी विफल रहा, इसलिए उन्होंने एक विमान का सहारा लिया। जहां बचाव चल रहा था, वहां एक समय ऐसी स्थिति बनी कि कुछ बच्चों की जान बचाने के लिए डॉ. सोनी को खुद पानी में कूदना पड़ा।
इस बहादुरी भरे कारनामे के लिए, डॉ. सोनी को ‘उत्तम रक्षा पदक’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लेकिन बेहद विनम्र सोनी इसके बारे में बात करते हुए बहुत सहज नहीं रहते। जैसा कि वो खुद कहते हैं, “सरकार ने मुझे लोगों की मदद करने और उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए नियुक्त किया है। इन्हें पूरा करना मेरी जिम्मेदारी है। मेरा काम कुछ लोगों के लिए बहुत नायकत्व भरा हो सकता है लेकिन मुझे लगता है कि यह मेरा काम है, जो मुझे करना ही है। अगर विमान के पायलट ने फोटो न खींची होती, तो शायद यह बात बाहर ही नहीं आती। फिर भी मैं संतुष्ट हूं क्योंकि उस दिन जान बचाई जा सकी थी।”
साहित्य और फोटोग्राफी से लगाव
डॉ. सोनी अपने कर्तव्य-पथ पर चलते हुए सिर्फ कार्य क्षेत्र में ही सक्रिय नहीं हैं। साहित्य और फोटोग्राफी के लिए उनका प्यार और उसके लिए वक्त निकालना भी हमें आश्चर्यचकित करता है। वो कहते हैं कि यह कला के साथ संबंध ही है जिसने उनके पांव हमेशा जमीन पर रखे और लोगों के प्रति संवेदनशील होने में मदद की। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कितना व्यस्त रहते हैं, वह हमेशा अपनी इस जुड़वा मोहब्बत के लिए समय निकाल लेते हैं।
अपने स्कूल के दिनों से ही वो कविता और कहानी लिखना शुरू कर चुके थे। उनकी पहली किताब ‘उम्मीदों के चिराग’ नाम से 2008 में सामने आई थी। इसके बाद, उन्होंने अंग्रेजी और राजस्थानी भाषा में कई किताबें लिखीं और सभी को पाठकों का खूब प्यार मिला। उन्होंने राजस्थानी में कुछ पुस्तकों का अनुवाद भी किया है। उनकी पुस्तक ‘रांखर’ के लिए, उन्हें प्रतिष्ठित ‘साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।
काम और कला के बीच संतुलन बनाने पर सोनी कहते हैं, “मैंने हमेशा माना है कि प्रशासन को संवेदनशील होना चाहिए। लेखन और फोटोग्राफी मुझे ऐसा करने और लोगों से जुड़ने में मदद करते हैं। इसके अलावा, मैं फोटोग्राफी का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं क्योंकि यह आपके खूबसूरत पलों को हमेशा जिंदा रखता है। हमें जीवन से और क्या चाहिए?”
यह बिल्कुल सही बात है, डॉ. सोनी। एक संतुष्टि से भरी जिंदगी, जो दूसरों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहती है, उसे किसी भी प्रकार की गैर-जरूरी खूबियों की आवश्यकता नहीं होती है। ठीक ही तो किसी शायर ने लिखा है- ‘खुदा भी रहमतों की उस पर बरसात करता है, जो जरूरतमन्द की मदद के लिए आगे बढ़ता है।’
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