नशा से भी अधिक काम का है महुआ
- Bhakti Kothari
- Published on 1 Jun 2023, 5:00 pm IST
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हाइलाइट्स
- इस आईएएस अधिकारी का धन्यावद, जिन्होंने इसे पहचाना
- छत्तीसगढ़ के जसपुर के कलेक्टर डॉ. रवि मित्तल ने महुआ के फूलों का बढ़िया इस्तेमाल खोज निकाला
- उन्होंने इन फूलों से कैंडी, लड्डू और चॉकलेट बनाने के लिए स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को जोड़ा
- यह परियोजना आदिवासी महिलाओं को आजीविका कमाने में हो रही है मददगार
डॉक्टर से अधिकारी बने डॉ. रवि मित्तल ने महुआ के साथ एक नया अवसर तलाश लिया है, जिसका उपयोग सदियों से आदिवासी समाजों द्वारा हर्बल दवाएं, उपचार और शराब बनाने के लिए किया जाता था। 2016 बैच के आईएएस अधिकारी ने छत्तीसगढ़ सरकार के ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए कुपोषण से निपटने के लिए प्रचुर मात्रा में महुआ उपलब्ध कराने का प्रस्ताव रखा। इसमें कुकीज, कैंडी और चाय जैसे नए जमाने की वस्तुओं की एक श्रृंखला बनाई गई।
सिर्फ शराब नहीं हैः
जनजातीय जिला जशपुर के कलेक्टर ने महसूस किया कि महुआ न केवल निम्न-गुणवत्ता वाली शराब में एक प्रमुख घटक था, बल्कि उसमें पोषण तत्व भी खूब है। यह कुपोषण से लड़ने में मदद कर सकता है। साथ ही आदिवासी महिलाओं को आजीविका प्रदान कर सकता है, जो फूल से उत्पाद बनाने के बारे में अच्छी तरह वाकिफ हैं। पहले चरण में फूलों को सही तरीके इकट्ठा करना था, क्योंकि जमीन पर गिरे फूलों का उपयोग खाने की सामग्री बनाने के लिए नहीं किया जा सकता है। महुआ को बरबाद होने से बचाने के लिए पेड़ों पर बड़े-बड़े जाल लगा दिए गए थे।
डॉ. मित्तल ने इंडियन मास्टरमाइंड्स से कहा, ‘स्थानीय आदिवासी महुआ इकट्ठा करते हैं और इसे किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) को बेचते हैं। वह इन्हें खरीदकर इसका उपयोग महुआ कैंडी, कुकीज, लड्डू और चॉकलेट आदि बनाने में करते हैं।’
हो रही है कमाईः
जशपुर की आदिवासी महिलाएं दरअसल सदियों से फूलों को संभालने में माहिर हैं। वे अब महुआ से कई तरह के खाद्य पदार्थ बनाने की संभावनाओं वाली मशीनों के संचालन में औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त कर चुकी हैं।
अब महुआ के फूलों को काटा जाता है, सुखाया जाता है और फिर खाद्य उत्पाद बनाने के लिए संसाधित किया जाता है। शिक्षा की कमी के बावजूद आदिवासी महिलाएं स्थानीय स्तर पर अच्छा काम कर रही हैं, क्योंकि जिला खनिज फाउंडेशन फंड से बनाई गई खाद्य प्रयोगशाला में उनकी पहुंच मशीनों तक हो गई है।
कुकीज, केक, अचार, चायपत्ती, जेली, दाल, चावल, आटा और कुछ छोटे वन उत्पादों को इन प्रयोगशालाओं में बनाकर पैक किया जाता है। प्रत्येक स्वयं सहायता समूह की कुछ सदस्य शहरी बाजारों के लिए तैयार उत्पादों के प्रसंस्करण और पैकेजिंग में प्रशिक्षित और कुशल हैं।
लाभार्थीः
अधिकारी के मुताबिक, इससे कई लोगों को लाभ हुआ है। इसकी शुरुआत फूलों की खरीद में शामिल 150 परिवारों से हुई। उन्हें बाजार से 15 रुपये प्रति किलो मिलता है और वे आसानी से हर माह 75,000 किलोग्राम से अधिक एकत्र कर सकते हैं।
महुआ सुखाने में 10 परिवार शामिल होते हैं, जिसमें कुल 20 लोग रहते हैं। इनमें से प्रत्येक को 500 रुपये प्रति दिन के हिसाब से दिए जाते हैं। इसके अतिरिक्त, खाद्य वस्तु प्रसंस्करण पर काम करने वाली 40 महिलाओं को लगभग 300 रुपये हर रोज की कमाई होती है। अधिकारी ने कहा, ‘ये सभी अब कंपनी का हिस्सा हैं और और हम उन्हें लाभ में भागीदारी के साथ उत्पादन के लिए अतिरिक्त 200 रुपये देते हैं।’ जनवरी से शुरू हुए कार्यक्रम ने अब तक करीब 250-300 महिलाओं को फायदा पहुंचाया है।
सभी के लिए है महुआः
डॉ. मित्तल ने कहा, ‘ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए हम हमेशा सुधार कर रहे हैं। मधुमेह रोगियों के लिए हम बिना चीनी मिलाए लड्डू, चॉकलेट आदि बनाते हैं। वर्तमान में महुआ की वस्तुओं की पोषण सामग्री के सकारात्मक परिणाम मिले हैं।’
अधिकारी ने समझाया कि एक बार महुआ की खरीद और उत्पाद की रेंज काफी बढ़ जाने के बाद वे पूरे उत्पादन को महुआ-सुविधा में स्थानांतरित कर देंगे। डॉ. मित्तल की चाहत है कि सभी परिवारों के टेबल पर महुआ से बना खाना हो। लाभ बढ़ाने के लिए वह बाजरा मिशन के साथ इसका विलय कर रहे हैं।
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