‘टू मच ऑफ डेमोक्रेसी’ और फिर उस पर हुआ बवाल
- Anil Swarup
- Published on 4 Aug 2023, 2:23 am IST
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हाइलाइट्स
- सिविल सेवकों के बयान प्रतिक्रियाओं की सुनामी लाने की क्षमता रखते हैं
- इसलिए उन्हें सार्वजनिक बयान देते समय सतर्क रहने की जरूरत है
- निजी तौर पर दिया गया बयान भी लीक होकर मचा सकता है हंगामा
कुछ साल पहले अमिताभ कांत के “टू मच ऑफ डेमोक्रेसी” वाले बयान ने मीडिया में तहलका मचा दिया था। मैं भी इस पर विश्वास नहीं कर सका। मेरी पहली प्रतिक्रिया यही थी कि इसे शायद गलत ढंग से पेश किया गया है। हालांकि, जल्द ही वह वीडियो सामने आ गया जिसमें उन्होंने यह बयान दिया था। यह भी सामने आया कि यह बयान किस संदर्भ में दिया गया था। वह खुद ही अपने बयान पर सफाई देने लगे। मुझे अपने पूरे करियर में ऐसा कोई उदाहरण याद नहीं आता, जब किसी सेवारत सिविल सेवक के एक बयान पर मीडिया और जनता में इतनी प्रतिक्रिया हुई हो। शायद यह सब इसलिए तूल पकड़ा कि अमिताभ कांत नीति आयोग के चीफ एग्जीक्यूटिव अफसर थे, जो बहुत ही हाई-प्रोफाइल संगठन है। मैं अपनी पेशेवर क्षमता में अमिताभ कांत को जानता हूं। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि वह वास्तव में लोकतांत्रिक मानदंडों के प्रति समर्पित हैं। हालांकि, सभी सिविल सेवकों (शायद हर हाई-प्रोफाइल व्यक्ति) के सार्वजनिक बयानों को गलत समझे जाने का खतरा रहता है। इसलिए, सार्वजनिक डोमेन में कही गई बातों के बारे में सतर्क रहना हमेशा बेहतर होता है। खासकर सुपर-चार्ज वातावरण में, जहां किसी भी चीज की व्याख्या किसी की सुविधा के अनुसार की जा सकती है।
समान स्थिति का सामना करना पड़ा
मुझे याद है कि 2015 में भारत सरकार के कोयला सचिव की हॉट सीट पर रहते हुए भी मैं इसी तरह की स्थिति से गुजरा था। हालांकि तब माहौल इतना तनाव वाला नहीं था।’सिर्फ नेताओं को दोष क्यों दें, 5सी भी निर्णय लेने में बाधक है: कोयला सचिव’- यह एक प्रमुख दैनिक अखबार की हेडलाइन थी। इसने प्रतिक्रियाओं की सुनामी ला दी। शायद लगभग सभी ने इसे महसूस किया, लेकिन किसी में भी इसे कहने का साहस नहीं हुआ। यह सब मेरी फेसबुक और ट्विटर पर की गई छोटी-छोटी टिप्पणियों से शुरू हुआ। मैंने लिखा था, “विकास की गति बेईमानों से उतनी प्रभावित नहीं होती, जितनी उन रुकावटों से होती है जो ईमानदारों को निर्णय लेने से रोकते हैं।”यह वही है, जिस पर मुझे सचमुच विश्वास था। लेकिन यह नेट पर वायरल हो गया। हालांकि यह अभी भी छोटा ही मामला था। लेकिन फेसबुक पर एक करीबी लोगों के ग्रुप में बाद के स्पष्टीकरण ने सुनामी पैदा कर दी, क्योंकि इससे देश में शासन पर असर पड़ा।
हम बहुत आसानी से सभी बुराइयों के लिए नेताओं को दोषी ठहरा देते हैं। हालांकि, क्या यह सच नहीं है कि 5-सी यानी सीबीआई, सीवीसी, सीएजी, सीआईसी और कोर्ट विकास को प्रभावित करने वाले त्वरित और प्रभावी निर्णय लेने के लिए एक अवरोधक वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं? विडंबना यह है कि इन सभी संस्थानों पर नेताओं का नहीं बल्कि सिविल सेवकों का कब्जा है।
प्रतिक्रियाओं की बाढ़
प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आ गई। लगभग सभी इस कथन के समर्थन में थीं। एक पूर्व कैबिनेट सचिव ने टिप्पणी की, ‘अनिल स्वरूप बिल्कुल सही हैं। मामले को बदतर बनाने के लिए इन 5 सी ने पिछले कुछ वर्षों में अधिक उछल-कूद मचा रखी है। सत्ता के करीबी माने जाने वाले एक सचिव ने टिप्पणी की, आपने एफबी पर बहुत साहसिक बयान दिया है। बधाई!’ एक अन्य सचिव भी उतने ही स्पष्टवादी थे। उन्होंने लिखा, ‘वास्तव में एक साहसिक बयान, अनिल। बहुत बढ़िया! आप ‘नौकरशाह’ की छवि बदल रहे हैं।’ विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के एक पूर्व राजदूत ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘बहुत अच्छा अनिल। आपने बिलकुल ठीक सिर पर प्रहार किया है।’ एक रिटायर आईपीएस अधिकारी, जिन्होंने सीबीआई के साथ काम किया था, इस कथन से सहमत थे- ‘सीबीआई के अपने लंबे अनुभव के साथ मैं अनिल के विचार का पूरी तरह से समर्थन करता हूं।’ केंद्रीय अर्धसैनिक बल का नेतृत्व कर रहे एक अन्य आईपीएस अधिकारी ने भी टिप्पणी की, ‘वह सही हैं… हमने अक्सर इस बिंदु पर चर्चा की है। हमारा देश एकमात्र ऐसा देश है, जहां उपरोक्त संस्थाएं, जिन्हें सही मायने में कमेंटेटर कहा जाता है, खिलाड़ियों से अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती हैं! या, अलग ढंग से कहें तो इलाज करने वाले डॉक्टर की तुलना में पोस्टमार्टम करने वाले अधिक महत्वपूर्ण हैं।’दिलचस्प बात यह है कि उल्लिखित 5-सी में से एक सीएजी था। सीएजी के एक पूर्व महानिदेशक ने इस मुद्दे को उठाने के लिए मुझे बधाई दी, ‘बधाई हो… सरकार में अच्छे और त्वरित निर्णयों में बाधा डालने वाले प्रासंगिक मुद्दों को उठाने के लिए।’ कुछ कैबिनेट मंत्रियों ने मुझे फोन करके इस मुद्दे को उठाने के लिए बधाई दी।
सबक सीखा
जब मैं नौकरी में था, तब एक मुद्दे को सही तरीके से उठाया था। इन संस्थानों में काम करने वाले कुछ लोग ‘नजरों में आने के लिए’ आगे बढ़ गए थे। इससे सिविल सेवा में पीछे रह गए लोगों की पहल खत्म हो गई और निर्णय लेना और अधिक कठिन हो गया। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हाल ही में एक सीएजी और उनके जैसे लोगों द्वारा की गई तबाही से शासन को नुकसान उठाना पड़ा है और अभी भी भुगतना पड़ रहा है। यह कोयला मंत्रालय में स्पष्ट था, जहां मैंने विध्वंसक दस्ते द्वारा किए गए भारी विनाश के बाद कुछ निर्माण करने की मांग की थी।विकास की गति को बाधित करने वाले कारणों के संबंध में मैंने जो प्रारंभिक बयान दिया था, उस पर मुझे बिल्कुल भी संदेह नहीं था। मेरा हमेशा से मानना रहा है कि रुकावट पैदा करने वाले कारणों को पहचाने बिना सुधार के कदम कदम प्रभावी ढंग से नहीं उठाए जा सकते। इसलिए, मैंने जो कहा उसे वापस लेने या संशोधित करने का कोई सवाल ही नहीं था। क्योंकि मैंने जो कहा, उस पर मुझे वास्तव में विश्वास था। हालांकि, मेरे बाद के बयान/स्पष्टीकरण के बारे में एक वैध प्रश्न हो सकता है, जिसमें मैंने उन एजेंसियों की पहचान की जो वास्तव में निर्णय लेने में बाधा डाल रही थीं। एक दृष्टिकोण यह हो सकता है कि बाद के बयान/स्पष्टीकरण से बचा जा सकता था, क्योंकि इससे इन ‘प्रभामंडल’ संस्थानों में बैठे कुछ लोगों को शर्मिंदगी उठानी पड़ी।हालांकि, ‘सुनामी’ पैदा करने वाला बयान सार्वजनिक डोमेन में नहीं बल्कि निजी तौर पर दिया गया था। यह किसी तरह लीक हो गया। लेकिन मेरे लिए एक सबक था। एक सिविल सेवक के लिए कुछ भी निजी नहीं है। इसलिए, मैंने बाद में अपने निजी कम्युनिकेशन में भी सावधान रहना चुना। हालांकि, इसने मुझे मेरे पास आने वाली प्रत्येक फाइल में अपना नजरिया देने से नहीं रोका। यह सब पूरी तरह से ‘आधिकारिक’ था, कुछ भी निजी या सार्वजनिक नहीं।
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