कतर्नियाघाट में बाघों के नए जन्म की असली कहानी
- Sharad Gupta
- Published on 6 Aug 2023, 11:14 pm IST
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हाइलाइट्स
- 2005 में एक बाघ दिखने से लेकर नई जनगणना में 59 तक पहुंचने तक बाघों की यहां हुई है बड़ी वापसी
- उत्तर प्रदेश के इस वाइल्ड लाइफ सैंगक्चूएरी को कुछ वर्ष पहले विशेषज्ञों ने बाघों के ठिकाने के लिए सही नहीं माना था
- फॉरेस्ट आईजी रमेश पांडे ने कतर्नियाघाट में 2005 से 2008 तक डीएफओ रहते हुए की थी पुनरुद्धार की पहल
एक समय था, जब उत्तर प्रदेश के बहराईच जिले में भारत-नेपाल सीमा के पास वाइल्ड लाइफ सैंगक्चूएरी यानी वन्यजीव अभयारण्य कतर्नियाघाट को विशेषज्ञों ने बाघों के निवास स्थान के रूप में खारिज कर दिया था। यह कहते हुए कि वहां बाघ कभी नहीं बस सकते। यहां के बाघ वैसे ही गायब हो गए, जैसे सरिस्का में हुए थे। हालांकि, एक युवा डीएफओ ने सभी को गलत साबित कर दिया। इसलिए कि कतर्नियाघाट में उनकी पोस्टिंग के एक साल के भीतर ही हालात बदल गए। वह कई दिनों तक जंगल के अंदर डेरा डाले रहते। किसी बाघ के लक्षण देखने के लिए रात में भी पैदल गश्त करते रहे। आखिरकार कतर्नियाघाट में एक बाघ को देखने में उन्हें पूरा एक साल लग गया। इससे उन्हें बाघों की मायावी आबादी को नया जन्म देने की आशा और संकल्प मिला।
और धैर्यवान उस ‘धारीदार साधु’ के साथ हुई एक मुलाकात से चीजें बदलनी शुरू हो गईं। बाघों की संख्या बढ़ने लगी। आज यहां 59 बेजोड़ बाघ पल रहे हैं, जिसके अंदर गांव हैं और नदियां बहती हैं।
दरअसल यह बदलाव युवा डीएफओ के कार्यकाल के दौरान शुरू हुआ। यह हैं- 1996-बैच के आईएफएस अधिकारी रमेश पांडे। वह उस समय 35 वर्ष के थे। आज वह भारत सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय में फॉरेस्ट आईजी यानी इंस्पेक्टर जनरल हैं।
इंडियन मास्टरमाइंड्स से एक खास बातचीत में उन्होंने कतर्नियाघाट में बाघों के नए जन्म की दिलचस्प कहानी सुनाई।
एक कठिन पोस्टिंग
जब रमेश पांडे 2005 में कतर्नियाघाट वन्यजीव अभयारण्य में डीएफओ के रूप में तैनात थे, तब उनसे पहले के बाकी डीएफओ अधिकतम 6 महीने से एक वर्ष तक वहां रहे थे। जब वह अभयारण्य में पहुंचे, तो उन्हें ऐसी ध्वस्त व्यवस्था मिली। कर्मचारी हताश और निराश थे। क्षेत्र पर माफिया और अपराधियों के संगठित गिरोह का कंट्रोल था। लकड़ी माफिया बेखौफ होकर पेड़ों की कटाई कर रहे थे, क्योंकि अधिकांश वन कर्मचारी उनके साथ थे। भारत-नेपाल सीमा के दोनों ओर से अवैध शिकार करने वाले गिरोह भी मौज कर रहे थे। गिनते के ईमानदार स्टाफ सदस्यों को छोड़कर हर कोई बड़े उत्साह के साथ अपना काम कर रहा था। ईमानदार स्टाफ सदस्य पूरी तरह हताश हो चुके थे।
व्यवस्था बहाल करने की जिम्मेदारी श्री पांडे के कंधों पर आ गई। वह कहते हैं, “यही कारण था कि मुझे 2005 में डीएफओ के रूप में उस क्षेत्र की सेवा करने के लिए चुना गया था। पिछले 30 वर्षों में वहां एक डीएफओ का औसत कार्यकाल 6 महीने से एक वर्ष तक था। यह काम करने के लिए सबसे कठिन क्षेत्रों में से एक था। कतर्नियाघाट को दुधवा टाइगर रिजर्व में शामिल किए जाने के बाद, वास्तव में इसे बाघों के निवास स्थान के रूप में डब्ल्यूआईआई सहित कई वन्यजीव विशेषज्ञों ने खारिज कर दिया था। यही वह समय था, जब सरिस्का कांड हुआ था और पन्ना चर्चा में था। मुझे उस स्थान को फिर से पटरी पर लाने के लिए भेजा गया था। मैं वहां चार साल तक रहा।”
एक साल बाद दिखा पहला बाघ
ऐसा लग रहा था कि बाघ गायब हो गए हैं। एक बाघ को देखने में उन्हें एक साल लग गया। डिवीजन में 550 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र है। इसमें से 400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र अभयारण्य है। यह स्थान उस समय घड़ियालों के प्रजनन के लिए प्रसिद्ध था। 2003 में यह दुधवा टाइगर रिजर्व का हिस्सा बन गया, लेकिन जब बाघों के पुनरुद्धार की बात आई तो वन्यजीव विशेषज्ञों को इस कदम से ज्यादा उम्मीद नहीं थी। हालांकि, नए डीएफओ ने उन सभी को गलत साबित कर दिया। बाघ को देखने में उन्हें एक वर्ष जरूर लग गया, लेकिन उस एक दृश्य ने उन्हें आशा दी कि बाघ एक बार फिर उस क्षेत्र में पनप सकते हैं।
उन्होंने कहा, “आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मुझे वहां पहले बाघ का पता लगाने में एक साल लग गया। उन दिनों मैं लगातार 15-20 दिनों तक जंगल में डेरा डाले रहता था। दिन-रात पैदल गश्त करता था। सिर्फ यह जानने के लिए कि वहां अभी भी कोई बाघ है या नहीं।”
पहली बार देखने के बाद उन्होंने कतर्नियाघाट को एक बार फिर बाघों से भरने की ठान ली। उन्होंने बाघों के गायब होने के कारणों की पहचान करना शुरू कर दिया। तभी उन्हें एहसास हुआ कि उनके सामने एक कठिन काम है।
ऑपरेशन त्रिशूल
उन्होंने क्षेत्र में पेड़ों की अवैध कटाई को रोकना शुरू किया। पहले 45 दिनों में 50 अपराधी पकड़े गए। तब मौजूदा ब्लॉक प्रमुख के खिलाफ ‘ऑपरेशन त्रिशूल’ चलाया गया। उसके पास से 17 ट्रक लकड़ी जब्त की गई। श्री पांडे ने कहा, “ऑपरेशन में 48 घंटे लगे। मैं 200 पुलिसकर्मियों और वन कर्मियों के साथ वहां मौजूद था। दरअसल एक जाने-माने माफिया ने ही हमें गुप्त सूचना दी थी।”
बावरिया गैंग का सफाया
लकड़ी माफिया पर जोरदार हमला करने के बाद श्री पांडे ने कुख्यात बावरिया समुदाय के सदस्यों द्वारा अवैध शिकार को बंद करने पर ध्यान लगाया। यह खानाबदोश समुदाय मूल रूप से राजस्थान का है, लेकिन इसका आधार हरियाणा के समालखा क्षेत्र में है। वे संगठित अपराधी हैं, जो गिरोहों में काम करते हैं और पूरे देश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर वन्यजीवों के अवैध शिकार सहित विभिन्न अपराध करते हैं।
कतर्नियाघाट में अधिकांश बाघों का उनके सदस्यों द्वारा शिकार किया गया था। श्री पांडे ने उनके तीन गिरोहों का भंडाफोड़ किया। फिर इस समुदाय की बाघों के अवैध शिकार के तरीके को उजागर कर पूरे देश के सामने रख दिया।
कर्मचारियों को चुस्त किया
एक बार जब लकड़ी माफिया और संगठित अवैध शिकार गिरोहों पर काबू पा लिया गया, तो श्री पांडे ने अब अपना ध्यान कर्मचारियों की क्षमता बढ़ाने पर लगाया। चूंकि कतर्नियाघाट दुधवा टाइगर रिजर्व के तहत लाए जाने से पहले एक क्षेत्रीय डिविजन था, इसलिए उन्होंने कर्मचारियों के लिए बाघों को ट्रैक करने और निगरानी करने के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की। साथ ही उन्हें आवास प्रबंधन के बारे में भी सिखाया।
हैबिटैट मैनेजमेंट
साथ ही, उन्होंने आवास में सुधार की दिशा में ठोस प्रयास किए। इसके कारण बाघों के लिए शिकार करना आसान हुआ। हिरण और जंगली जानवरों की आबादी बढ़ गई। इसी तरह अभयारण्य से होकर बहने वाली ट्रांस गेरुआ नदी के पास गैंडों, हाथियों और प्रजनन करने वाले घड़ियालों को भी देखा जाने लगा।
वहां मौजूद कुछ बाघों को अब भोजन की आसानी से मिलने लगे। सुरक्षित ठिकाना भी मिल गया था। इससे उनके बच्चे होने लगे। उनकी संख्या बढ़ने लगी और वे बार-बार दिखने लगे।
बाघों की संख्या 30+ तक बढ़ी
श्री पांडे द्वारा पहली बार बाघ देखे जाने के दूसरे वर्ष कतर्नियाघाट फील्ड स्टाफ ने 3-4 बाघ देखे। तीसरे वर्ष में अभयारण्य में आने वाले पर्यटकों ने भी उन्हें देखा। वह वर्ष 2008 था, जब कैमरे की मदद से राष्ट्रीय स्तर पर बाघों की गिनती की गई थी। पता चला कि कतर्नियाघाट में अब 30 से अधिक बाघ हैं! यह अच्छी खबर अभयारण्य के डीएफओ के रूप में श्री पांडे के कार्यकाल के चौथे वर्ष में आई।
राज्यसभा में आई बात
हैरान कर देने वाले इस बदलाव का जिक्र राज्यसभा में भी हुआ। तब के सांसद और पायनियर के पूर्व संपादक चंदन मित्रा ने इसका जिक्र देश में बाघ पुनरुद्धार की एक सफल कहानी के रूप में किया था।
केंद्र को भी पता चला कि श्री पांडे कतर्नियाघाट में वन्यजीव और वन संबंधी अपराधों पर अंकुश लगाने में कामयाब रहे हैं। इसलिए उन्हें वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो में लाया गया।
उनकी जगह 1995 बैच के आईएफएस अधिकारी आशीष तिवारी आए, जो वर्तमान में उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन सचिव हैं। उन्होंने उपायों को आगे बढ़ाया और पर्यटकों के लिए बेहतर बुनियादी ढांचा भी तैयार किया, क्योंकि इस समय तक कतर्नियाघाट वन्यजीव पर्यटन के मानचित्र पर आ गया था। लखनऊ और दिल्ली से पर्यटक यहां आने लगे थे।
श्री पांडे ने कहा, “मैंने 2005-2008 में इस क्षेत्र को पुनर्जीवित किया। आशीष तिवारी ने और अधिक इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार कर काम को आगे बढ़ाया। वहीं, अब मौजूदा डीएफओ आकाश अच्छा काम कर रहे हैं। वैसे जब लोग कतर्नियाघाट का नाम सुनते हैं, तो उन्हें आज भी उस बेहद कुशल मैनेजमेंट की याद आती है जिसके माध्यम से इसे पुनर्जीवित किया गया था। इस सफलता को देखते हुए बिहार में वाल्मीकि टाइगर रिजर्व को भी इसी तर्ज पर पुनर्जीवित किया गया।”
अभी 59 बाघ होने का अनुमान
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया (वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर) भी दो दशकों से अधिक समय से कतर्नियाघाट अभयारण्य में वन विभाग के साथ मिलकर काम कर रहा है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-भारत के सीनियर डायरेक्टर, जैव विविधता संरक्षण डॉ. दीपांकर घोष के अनुसार, “राष्ट्रीय स्तर के अनुमान से पता चला है कि इस अभयारण्य में इस समय 59 बाघ हैं। यह वन्यजीव संरक्षण के दूरदर्शी नेतृत्व के कारण संभव हुआ है, जो रमेश पांडे द्वारा शुरू किया गया था, जिन्होंने डीएफओ कतर्नियाघाट और बाद में दुधवा टाइगर रिजर्व के फील्ड निदेशक के रूप में कार्य किया।”
पांचवें चक्र की आकलन रिपोर्ट से बेहद खुश श्री पांडे ने कहा, “ऐसे बहुत कम डिवीजन हैं, जिनमें 550 वर्ग किलोमीटर में 50 से 60 बाघ होंगे। यह देखना अद्भुत अहसास है कि जिस स्थान को वन्यजीव विशेषज्ञों ने खारिज कर दिया था, वहां अब 59 बाघ हैं। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि हमने बाघों के पनपने के लिए एक इको-सिस्टम बनाया।”
कतर्नियाघाट के वर्तमान डीएफओ और 2016-बैच के आईएफएस अधिकारी आकाशदीप बधावन भी सिर्फ बाघों के फलने-फूलने के लिए अनुकूल वातावरण बनाने पर ध्यान दे रहे हैं।
उन्होंने कहा, ”अभयारण्य के अंदर 16 से अधिक गांव और ‘मज़ार’ हैं। हम ग्रामीणों के साथ-साथ तीर्थयात्रियों के लिए भी नियमों और व्यवस्थाओं को सख्ती से लागू कर रहे हैं। जानवरों को अपना प्राकृतिक स्थान हासिल करने में मदद करनी होगी। इसके लिए इंसानी दखलंदाजी कम करनी होगी। बाघ एक शर्मीला जानवर है। रमेश पांडे सर इसे हमेशा ‘धारीदार साधु’ कहते हैं। और, एक साधु अकेली ही रहना पसंद करता है।”
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