सफलता का अचूक नुस्खा: चींटी की तरह परिश्रम और ईमानदार कोशिश
- Bhakti Kothari
- Published on 11 Oct 2021, 12:23 pm IST
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हाइलाइट्स
- हिंदी माध्यम से पढ़ाई, रोजाना लंबा सफर, विनम्र पृष्ठभूमि, शिक्षक की नौकरी और लगतार 5 बार असफलता
- इस सबके बाद भी यूपीएससी-2015 परीक्षा में अपने छठे प्रयास में देश भर में 300 वीं रैंक के साथ लहराया सफलता का परचम
- यह कहानी हर एक शक्स के लिए है प्रेरणा, समझाती है जीवन में संघर्षों के असल मायने
- आईआरएस अधिकारी विवेक चौहान, यूपीएससी-2015, 300 वीं रैंक
नई कविता आन्दोलन के सशक्त हस्ताक्षर और हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार कुंवर नारायण लिखते हैं, “कोई दुख, मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं, हारा वही, जो लड़ा नहीं।” शब्दों का मर्म साफ है कि हारता वही है, जिसके पास साहस नहीं होता और जो दुखों से लड़ने व परिस्थियों से जूझने से कतराता है।
यह कहानी भी आपको इतिहास के किसी एक ऐसे योग्य राजा की याद दिला सकती है जो दुश्मन के छक्के छुड़ा उसके किले पर विजय प्राप्त करना चाहता था, लेकिन बार-बार असफल हो रहा था। उसने उजड़े हुए खंडहरों में शरण ले रखी थी, उसके पास न ही ताकत बची हुई थी और न ही साहस, और आगे की लड़ाई भी वो छोड़ चुका था। लेकिन एक चींटी को देखकर उसे प्रेरणा मिली जो अपने आकार से दो गुना अनाज उठाए हुए, अपने 20 वें प्रयास में एक दीवार पर चढ़ने में सफल हो पाई। इस दृश्य ने उसे फिर से साहस जुटाकर लड़ने के लिए प्रेरित किया और आखिरकार राजा उठ खड़ा होता है, अपनी सेना बनाता है और दुश्मन की सीमाओं को जीत इतिहास लिखता है।
कुछ ऐसी ही कहानी आईआरएस अधिकारी विवेक चौहान की भी है जिसमें कुंवर नारायण की कविता, चींटी के किस्से और राजा के संघर्षों सहित, तीनों के मर्म समाहित हैं। सभी बाधाओं और विपरीत परिस्थितियों से लड़ते हुए विवेक ने अपने छठे प्रयास में यूपीएससी परीक्षा पास कर सफलता का शीर्ष छुआ।
वह 8 वीं कक्षा से स्कूल जाने के लिए प्रतिदिन छह घंटे ट्रेन से सफर करते थे। उन्होंने चार साल तक एक प्राथमिक शिक्षक के रूप में काम किया, उनकी शादी भी हो गई और यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा देने के फैसले से पहले ही बच्चे भी हो गए। वह आखिरी बाधा से पार पाने में हमेशा असफल रहते थे, लेकिन उस ‘चींटी’ की कहानी से प्रेरणा लेकर हमेशा अगली लड़ाई के लिए फिर से उठ खड़े होते थे। जीवन के इस हिस्से में, वह खुद ‘चींटी’ का किरदार अदा कर रहे थे।
जब भी उन्हें लगा कि बधाएं अजेय हो रही हैं और इनसे पार पाना मुश्किल है, तो उनके परिवार के सदस्य और दोस्त उन्हें याद दिलाते कि वह पौराणिक ‘चींटी’ वाले किरदार की तरह हैं जो लक्ष्य हासिल होने तक हार नहीं मान सकता।
उनके बचपन की एक वास्तविक कहानी भी है जो उनके माता-पिता उनके हताशा के दिनों में उन्हें प्रेरित करने के लिए सुनाते रहते थे। जब वह सिर्फ छह साल के थे, तब एक बार उनके माता-पिता ने उन्हें पास के बाजार से पावरोटी खरीदने के लिए भेजा था। लेकिन उन्हें पास के बाजार की किसी भी दुकान पर रोटी नहीं मिली। और वह इसकी तलाश में बाजार से आगे चलते चले गए, क्योंकि वह खाली हाथ घर वापस नहीं जाना चाहते थे। आखिरकार उन्हें लगभग तीन किलोमीटर दूर रोटी मिली।
इसीलिए जब भी उन्होंने उम्मीद छोड़ी, तो उनके माता-पिता उन्हें बताते कि दृढ़-संकल्प और प्रतिबद्धता उनमें कम उम्र से ही थी। वे उन्हें बताते कि कैसे वो बेहद कम उम्र में सिर्फ रोटी लाने के लिए 3 किलोमीटर पैदल चलकर गए थे, इसलिए यूपीएससी में सफल हुए बगैर वो कैसे संतुष्ट हो सकते हैं! इसका असर ये होता कि विवेक फिर से लोगों के ताने और उपहास को दरकिनार कर अपनी पढ़ाई में जुट जाते। उनकी क्षमताओं पर उनके परिवार का विश्वास उनमें नई ऊर्जा का संचार कर देता और वो फिर से अपने कर्तव्य पथ पर चलने लगते।
संघर्ष
विवेक का बचपन बहुत साधारण था। जब वह 8 वीं कक्षा में थे, उनका परिवार गाजियाबाद में शिफ्ट हो गया। चूंकि उनके पिता उन्हें एक निजी स्कूल में भेजने का खर्च नहीं उठा सकते थे, इसलिए यह निर्णय लिया कि विवेक अपने घर से 30 किलोमीटर से भी अधिक दूर दिल्ली के सिविल लाइंस में अपने सरकारी स्कूल में ही पढ़ाई जारी रखेंगे। वह सुबह 5 बजे उठते, तैयार होते, दिल्ली जाने के लिए एक ट्रेन पकड़ते और समय पर स्कूल पहुंचने के लिए दो बस बदलते। एक तरफ के आवागमन में ही उन्हें लगभग 3 घंटे लग जाते थे। उनके लिए वो मुश्किल वक्त था।
स्कूल के बाद का जीवन
स्कूल पास करने के बाद, वह दिल्ली नगर निगम द्वारा आयोजित ‘शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम’ में शामिल हुए। 19 वर्ष की आयु में उन्होंने एक स्कूल शिक्षक की नौकरी कर ली। स्कूल में कभी-कभी एक उच्च-शिक्षा अधिकारी दौरा किया करते थे, जो एक सिविल सेवक था। यहीं वह एक सिविल सेवक की ताकत और अधिकार से प्रभावित हुए और उन्हें प्रेरणा मिली कि वह खुद भी यही बनेंगे।
इस बीच उनकी शादी हो चुकी थी और उनके हिस्से में साझा पारिवारिक जिम्मेदारियां थीं। लेकिन वो कहते हैं न कि ‘जहां चाह वहां राह’, उनकी पत्नी पूजा रानी ने उन्हें अपने साथ परीक्षा देने के लिए प्रेरित किया। अपने पहले प्रयास में बिना ज्यादा तैयारी के उन्होंने ठीक-ठाक नंबर प्राप्त किए। किसी के लिए प्रोत्साहन के लिए इतने नंबर पर्याप्त थे।
लेकिन समस्याएं हर जगह मुंह बाए खड़ी थीं। वह हिंदी माध्यम की पृष्ठभूमि से थे और हिंदी में पर्याप्त अध्ययन सामग्री ऑनलाइन उपलब्ध नहीं थी। इसलिए उन दोनों ने हिंदी में अध्ययन सामग्री खरीदने से पैसे बचाने के लिए अंग्रेजी में अध्ययन करने का विकल्प चुना। हालांकि वह जानते थे कि इस बड़े कदम से उन्हें अतिरिक्त प्रयासों की आवश्यकता होगी, लेकिन वह चुनौती के लिए तैयार थे। उन्होंने स्वयं से सामान्य ज्ञान की तैयारी की और अपने वैकल्पिक विषय इतिहास का अध्ययन करने के लिए एक कोचिंग में प्रवेश लिया।
परीक्षा
जब विवेक ने यूपीएससी की तैयारी का फैसला किया, तो वह पहले से ही 26 साल के थे। इसका मतलब था कि उनके पास परीक्षा में सफल होने लिए केवल चार ही प्रयास बचे थे और एक मौका वह आधी तैयारी के कारण पहले ही गंवा चुके थे। साल 2011 में उन्होंने फिर से परीक्षा दी, लेकिन सिर्फ 7 अंकों से कट-ऑफ से चूक गए। इस परिणाम से उन्हें बुरा तो बहुत लगा, लेकिन उन्हें अतिरिक्त ऊर्जा और साहस भी मिला क्योंकि वो सफल भले ही न हुए हों लेकिन खुद को सफलता के करीब पहुंचते देख सकते थे। अपने तीसरे प्रयास के लिए, उन्होंने अपनी पत्नी और अपने करीबी दोस्तों से भी मदद ली। इस बार उन्हें पूरा विश्वास था कि वह परीक्षा में सफल होंगे, लेकिन जिंदगी के इम्तिहान अभी खत्म नहीं हुए थे और वह फिर से चूक गए, इस बार सिर्फ 3 अंकों से।
इस बार उन्हें निश्चित रूप से बहुत निराशा हुई और वह किसी तरह अपने आखिरी और अंतिम प्रयास के लिए खुद को संभाल पाए। इस बार उन्हें एक ऐसे दोस्त की मदद मिली जो खुद इस परीक्षा में पहले सफल हो चुका था। विवेक ने बड़ी उम्मीद के साथ अपना आखिरी प्रयास किया, परीक्षा दी और अंतिम परिणाम का इंतजार करने लगे। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, उस साल जाब परिणाम आए तो कट-ऑफ 241 तक पहुंच गई। विवेक का सपना टूट चुका था, वो अपने अंतिम प्रयास में भी असफल हो चुके थे।
इससे परिवार को भी गहरा सदमा लगा। उनके ख्वाब उनकी आंखों के सामने ही बिखर गए, उन्हें लगा जैसे उनकी दुनिया ही उजड़ चुकी है। अब कोई और रास्ता नहीं होने के कारण, उन्होंने अपना शिक्षण कार्य फिर से शुरू किया। स्कूल में अपने सहयोगियों के बार-बार ताने और कटाक्ष से उनके जख्म गहरे और निराशा बढ़ती चली गई।
आशा की किरण
लेकिन बहुत पुरानी कहावत है कि जब किसी इंसान को लगता है कि सारे रास्ते बंद हो चुके हैं, तब भी एक रास्ता या अवसर खुला रहता है जिसके तहत इंसान सफल हो सकता है। कुछ ऐसा ही हुआ कि अचानक यूपीएससी से आशा की एक किरण आई, सरकार ने परीक्षा के लिए अधिकतम आयु सीमा दो साल बढ़ाकर 32 वर्ष कर दिया। विवेक के लिए यह एक भगवान का दिखाया वही रास्ता या अवसर था और इस बार वह सफलता के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए पूरी दृढ़ता और विश्वास के साथ तैयार थे।
अपने 5 वें प्रयास में उन्होंने लिखित परीक्षा तो पास कर ली, लेकिन साक्षात्कार चरण को पास नहीं कर पाए। अब आखिरी और अंतिम प्रयास बचा था और वह इसके लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार थे। उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा अपनी तैयारी पर केंद्रित कर दी, अपनी सभी पिछली गलतियों का विस्तार से विश्लेषण किया, जिससे कि उन्हें फिर से दोहराने से बच सकें।
बुलंद हौसलों और मजबूत इरादों व खुद पर पूरे विश्वास के साथ अपनी आंखों में जीवन भर के ख्वाब लिए, वो अपने आखिरी प्रयास में यूपीएससी चक्रव्यूह को तोड़ने निकाल पड़े। आखिरकार 10 मई, 2016 को इस कभी न हार मानने वाले योद्धा ने उस ‘चींटी और राजा’ के असल जीवन में चरितार्थ करते हुए, भारत की सबसे कठिन परीक्षा के किले को भेद दिया और देशभर में 300 वीं रैंक के साथ यूपीएससी परीक्षा पास कर भारतीय प्रसाशनिक सेवाओं के अधिकारी बन गए। इतने हाड़तोड़ संघर्षों के बाद मिली सफलता की खुशी को सिर्फ वही जानते थे।
सीख
विवेक का मानना है कि आत्मविश्वास और दृढ़-संकल्प किसी के कैरियर का रास्ता तय करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। वह साल 2010 के उस वक्त को याद करते हैं, जब उन्होंने बिना परीक्षा की तैयारी के भी अपने पहले प्रयास में अच्छा प्रदर्शन किया था।
विवेक को भी लगता है कि जब बड़ी ताकत आती है, तो बड़ी जिम्मेदारियां भी आती हैं। ‘दिन में काम करना और रात में आराम करना’, यह फलसफा किसी सिविल सेवक के जीवन में काम नहीं आता है। उसे अपने देश की भलाई के लिए काम करने के लिए हर समय तैयार रहना होता है। और विवेक इस तथ्य से प्यार करते हैं कि उन्हें अपने राष्ट्र की सेवा करने का मौका मिल रहा है, जैसे कि उन्होंने सपना देखा था और योजना बनाई थी।
सेवा में आने के तुरंत बाद विवेक ने महसूस किया कि नौकरशाहों की छवि एक बड़ी समस्या है। उन्हें लगता है कि नौकरशाही में नैतिकता और मूल्य सबसे महत्वपूर्ण गुण हैं, क्योंकि वे पूरे राष्ट्र की अपेक्षाओं और जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर उठाने वाले व्यक्तियों में से हैं।
अपने परिवार की प्रेरणा और खुद के दृढ़-संकल्प और कड़ी मेहनत से, गाजियाबाद के एक मध्यम-वर्गीय लड़के ने पूरे देश को यह साबित कर दिया कि असफलता से कभी भी किसी को घबराने की जरूरत नहीं है, मजबूत इच्छाशक्ति और उत्साह के साथ कोई भी अपने सपनों और उस जीवन को प्राप्त कर सकता है जिसके बारे में वह ख्वाब देखता हो।
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