‘मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं’– चूड़ी बेचने से लेकर आईएएस अधिकारी तक का सफर
- Pallavi Priya
- Published on 21 Sep 2021, 12:56 am IST
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हाइलाइट्स
- 2012 बैच के झारखंड कैडर के आईएएस अधिकारी रमेश घोलप की कहानी, जिनका बचपन बेहद मुफलिसी में बीता।
- गांवों में चूड़ियां बेचकर अपने सफर की शुरुआत की, लेकिन अब वो खुद वंचितों के जीवन में रंग भर रहे हैं और उन्हें सपने देखने का हौसला दे रहे हैं।
- एक छोटे बच्चे को मिठाई खिलाकर दुलारते हुए रमेश घोलप। (क्रेडिट - रमेश घोलप)
मशहूर शायर मिर्जा गालिब ने कभी लिखा था – ‘रंज से खूगर हुआ इंसां तो मिट जाता है रंज, मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं।’
इन लाइनों की सच्चाई से वास्तविक जीवन में रूबरू कराने वाले सिविल सेवा के इस अधिकारी की कहानी कुछ ऐसी ही है, उन पर बेहताशा परेशानियों का पहाड़ तो टूटा, लेकिन अपनी कड़ी मेहनत और लगन से उन्होंने हर पहाड़ को समतल रास्ते में बदल दिया। इस कहानी का फलसफा यही है कि अगर कुछ बेहतर करने का जुनून हो तो जीवन में आई कठिनाइयों को अवसरों में बदला जा सकता है।
लेकिन यह तभी संभव है जब कोई खुद के दर्दनाक अनुभवों से गुजरते हुए अपनी समझ को इतना बेहतर बना ले कि दूसरों के सामने आने वाली मुश्किलों को भी आसानी से समझ सके। 2012 बैच के आईएएस अधिकारी रमेश घोलप से बेहतर इन बातों को कोई नहीं समझ सकता। कभी चूड़ी बेचकर गुजारा करने वाले रमेश आज आईएएस अधिकारी हैं।
एक चूड़ी जिस तरह से चटकीले रंगों को दर्शाती है, रमेश भी उसी तरह से कुछ खास कर रहे हैं। वो वंचित बच्चों की दर्द से भरी जिंदगी में नए रंग भरकर उनके अस्तित्व को नए पंख लगा रहे हैं। उनके आईएएस कार्यालय ने कई बच्चों को गोद लिया है और उनकी शिक्षा पर हो रहे खर्च को वहन कर रहा है। साथ ही बाल श्रम के उन्मूलन की दिशा में भी उनका कार्यालय काम कर रहा है।
उनके प्रयासों के माध्यम से अब तक 50 से भी अधिक बेसहारा बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिया जा चुका है। इन बच्चों को अब रेस्तरां या ऐसी किसी अन्य जगह पर काम नहीं करना पड़ता। अगर कलेक्टर बाबू बच्चों के जीवन में नहीं आते, तो शायद ये बच्चे ऐसे जीवन का सपना देखने का भी हौसला नहीं जुटा पाते। शिक्षा के लिए बच्चों की उत्सुकता रमेश को बहुत प्रभावित करती है और इसीलिए वह भावी और प्रतिभाशाली बच्चों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।
अपने कर्तव्यों के प्रति रमेश के दृढ़ प्रयासों ने झारखंड के कोडरमा जिले में खुशी और आभार की एक लहर पैदा कर दी। उनके प्रयासों से कई परिवारों का जीवन वापस ढर्रे पर आ गया। जिले और आस-पास के लोग उन्हें अब ‘पेंशन बाबू’ के नाम से बुलाते हैं। हालांकि वह इन सब बातों को लेकर बहुत विनम्र हैं।
इंडियन मास्टरमाइंड्स से बात करते हुए रमेश कहते हैं, “मैं कुछ भी महान नहीं कर रहा हूं। जो लोग भी मेरे पास मदद के लिए आते हैं, मैं अपने पास उपलब्ध संसाधनों से उनकी समस्याओं को हल करने की कोशिश करता हूं। मैं उन सभी लोगों के प्रति साफ और स्पष्ट रहता हूं। मैंने बहुत बुरा दौर देखा है और प्रत्येक चीज के लिए बहुत संघर्ष किया है, मैं नहीं चाहता कि ऐसा ही किसी और के साथ भी हो।”
मुश्किलों का पहाड़
2012 बैच के झारखंड कैडर के आईएएस अधिकारी रमेश घोलप मूलतः महाराष्ट्र के महागांव गांव के रहने वाले हैं। कोडरमा जिले के डीसी रह चुके रमेश वर्तमान में ‘झारखंड स्टेट एग्रीकल्चर मार्केटिंग बोर्ड’ के प्रबंध निदेशक पद पर हैं, साथ ही उनके पास ‘झारखंड राज्य सहकारी बैंक लिमिटेड’ के प्रशासक का अतिरिक्त प्रभार भी है।
अपने जीवन की शुरुआत से ही रमेश वित्तीय समस्याओं से घिरे रहे और उस पर उनकी शारीरिक समस्या ने उनके लिए मुश्किलों का अंबार लगा दिया। अब वह भले ही देश की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा पास करके एक मिसाल कायम कर यह साबित कर चुके हैं कि दृढ़-संकल्प और कड़ी मेहनत से सब कुछ हासिल किया जा सकता है। लेकिन उनका सफर कभी आसान नहीं रहा। उनकी यात्रा में घनघोर अंधेरों के कई पड़ाव आए।
रमेश जब डेढ़ साल के थे, उनपर पोलियो का वार हुआ। उनका परिवार भी आर्थिक रूप से मजबूत नहीं था। उनके पिता एक साइकिल मरम्मत करने की दुकान चलाते थे लेकिन बहुत शराब पीते थे। इसीलिए असलियत में परिवार चलाने की जिम्मेदारी उनकी मां पर रही। अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए उनकी मां ने आस-पास के गांवों में चूड़ियां बेचना शुरू कर दिया। इस काम में रमेश और उनके भाई भी मां की मदद करते थे। पोलियो की वजह से एक पैर खराब होने के बावजूद, रमेश चूड़ियां बेचने के लिए एक गांव से दूसरे गांव में घूमते थे।
लेकिन इस कठिन वक्त में भी युवा रमेश शिक्षा की ताकत को पहचानने लगे थे, वह जानते थे कि गरीबी से छुटकारा पाने का एकमात्र तरीका शिक्षा ही है। इसीलिए रमेश ने जीवन के हर क्षेत्र में कड़ी मेहनत करनी शुरू कर दी और बेहतर शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनगिनत कोशिशें की।
‘मेरी मां मेरी गुरु हैं‘
रमेश अपनी मां के बारे में बात करते हुए कहते हैं, “वह बहुत साहसी महिला हैं। वह सबसे प्रतिकूल और कठिन परिस्थितियों में भी सकारात्मकता और आशा ढूंढ लेती हैं। मैं उन्हें अपनी प्रेरणा और गुरु दोनों मानता हूं। मुझे हमेशा लगता है कि मेरे जीवन में उनकी उपस्थिति ही एकमात्र ऐसी चीज थी जिसने मुझे आगे बढ़ने और बाधाओं से लड़ने के लिए प्रेरित किया। हमारी पढ़ाई के लिए उन्होंने चूड़ियां बेचनी शुरू कर दी और आज भी वो काम कर रही हैं। वो कहती हैं कि इन चूड़ियों ने ही मुझे अधिकारी बनने में सहायता की है, इसलिए वह अपनी अंतिम सांस तक यह काम करती रहेंगी।”
रमेश ने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने गांव के ही एक स्कूल से की। बाद में वह 10 वीं और 12 वीं की पढ़ाई पूरी करने के लिए अपने मामा के यहां चले गए। अपनी मेहनत और लगन से उन्होंने 12 वीं बोर्ड में 88.5 फीसदी अंक प्राप्त किए। इतने अच्छे अंकों होने के बावजूद रमेश ने एजुकेशन में डिप्लोमा का कोर्स चुना, क्योंकि यह सबसे कम पैसों में होने वाली पढ़ाई थी और रमेश जल्द से जल्द एक शिक्षक के रूप में नौकरी करना चाहते थे जिससे वह अपने परिवार का सहारा बन सकें। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने एक मुक्त विश्वविद्यालय से बैचलर ऑफ आर्ट्स में भी दाखिला ले लिया।
रमेश बताते हैं कि 12 वीं की परीक्षा से पहले उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। इससे उनके परिवार की स्थिति और खराब हो गई। उनकी मां अकेली थी और वह किसी भी तरह से उनको सहारा देना चाहते थे। यही कारण है कि उन्होंने स्कूलों और अन्य सार्वजनिक स्थानों की दीवारों पर पोस्टर और कैरिकेचर (हास्य-चित्र) बनाना शुरू कर दिया। रमेश की कला और पेंटिंग बहुत अच्छी थी इसलिए उन्हें इस काम का अच्छा पैसा भी मिलता था।
डिप्लोमा पूरा करने के बाद रमेश 2009 में शिक्षक बन गए। लगातार संघर्षों में घिरे उनके परिवार के लिए यह बहुत बड़ी बात थी। लेकिन रमेश अभी इतने पर ही रुकने वाले नहीं थे, उन्हें तो अभी मीलों जाना था। उस वक्त रमेश को बहुत सी नौकरियों के बारे में भले ही न पता हो लेकिन वह जानते थे कि कलेक्टर कोई एक ऐसा पद होता है जिसे सभी सम्मान देते हैं और वह लोगों की समस्याओं का समाधान करता है। इस बात ने उन्हें यूपीएससी की तैयारी के लिए प्रेरित किया।
सितंबर 2009 में, उन्होंने अपने ख्वाबों की ओर पहला कदम बढ़ाया। अपनी मां के एक स्वयं सहायता समूह से लिए गए कर्ज के पैसों से वह कलेक्टर की परीक्षा की तैयारी के लिए पुणे चले गए। वह एमपीएससी और यूपीएससी के बारे में नहीं जानते थे और न ही उनके पास कोचिंग क्लास करने के लिए पैसे थे। इसलिए उन्होंने पहले एक शिक्षक से यह जानने की कोशिश की कि यह परीक्षा आखिर क्या है और वह इसमें उपस्थित होने के योग्य हैं कि नहीं…! मई 2010 में उन्होंने यूपीएससी परीक्षा पहली बार दी लेकिन सफल नहीं हुए।
रमेश बताते हैं कि इस बीच उनकी मां ने सरपंच का चुनाव भी लड़ा, पर दुर्भाग्य से हार गईं। लेकिन इससे वो हतोत्साहित नहीं हुए बल्कि उन्हें लड़ने की ताकत मिली और अब मन ही मन में उन्होंने तय कर लिया कि अधिकारी बनने के बाद ही अपने गांव वापस जाएंगे।
उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ एडमिनिस्ट्रेटिव करियर (SIAC-एसआईएसी) की परीक्षा उत्तीर्ण की, जिससे उन्हें एक छात्रावास में रहने की जगह मिल गयी और छात्रवृत्ति भी मिलने लगी। अब रमेश का पूरा ध्यान अर्जुन के मछ्ली की आंख की तरह अपने एकमात्र लक्ष्य सिविल सेवा परीक्षा पर था। आखिरकार साल 2012 में अनपढ़ माता-पिता के एक बेटे ने बिना किसी कोचिंग के पूरे देश में 287 वीं रैंक हासिल कर यूपीएससी परीक्षा पास कर ली। उन्हें आईएएस के लिए चुना गया। और अपनी बात का मान रखते हुए वह आईएएस अधिकारी बनने के बाद ही गांव वापस आए।
लगभग आठ वर्षों के अपने कैरियर में रमेश कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। उन्होंने झारखंड के तीन जिलों में एसडीएम के रूप में काम किया है। 2015 में उन्हें बागवानी निदेशक के रूप में अतिरिक्त प्रभार दिया गया, इससे पहले वह कृषि निदेशक के रूप में सेवारत थे। उन्हें झारखंड के ऊर्जा विभाग में संयुक्त सचिव के रूप में भी नियुक्त किया गया।
‘पेंशन वाले साहब’
इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकार वंचितों के उत्थान के लिए विभिन्न योजनाएं चलाती है, लेकिन उनके जमीनी स्तर पर ठीक से लागू नहीं होने के कारण उन योजनाओं का अपेक्षित लाभ शायद ही कभी मिल पाता हो। रमेश घोलप इसी कड़ी को सुधारने का कार्य कर रहे हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि सरकार की सभी योजनाएं जरूरतमंद लोगों तक पहुंचें, उन्होंने एक पारदर्शी तंत्र और प्रक्रिया तैयार की है। वह सप्ताह में दो बार जनता-दरबार लगाते हैं। यहां वह राशन कार्ड और पेंशन योजनाओं से संबंधित समस्याओं का समाधान करने की कोशिश करते हैं।
रमेश याद करते हुए बताते हैं, “कोडरमा में डीसी के रूप में कार्य करते हुए, मेरी टीम ने 25000 फर्जी राशन कार्ड रद्द करने में कामयाबी हासिल की और बीपीएल श्रेणी में उतने ही जरूरतमंद परिवारों को जोड़ा है। जनता-दरबार में हम लोगों की हर प्रकार से सहायता करते हैं। चाहे यह दस्तावेज संबंधित मुद्दा हो या जन्म प्रमाण से संबन्धित समस्या, हम लोगों के लिए हर संभव समाधान निकालने की कोशिश करते हैं।”
अपनी मां के संघर्षों को याद करते हुए रमेश कहते हैं कि उन्हें बार-बार सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगाते और अधिकारियों को पेंशन के लिए रिश्वत देते हुए देखता था। यहां तक कि इंदिरा आवास योजना के तहत घर पाने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ी।
रमेश कहते हैं, “मैं किसी भी मां को परेशान होते और पैसों के लिए संघर्ष करते नहीं देखना चाहता, यह उनका अधिकार है और उन्हें मिलना चाहिए। जब मैं उप-खंड अधिकारी के रूप में खूंटी में तैनात था तो मैंने वहां समस्या के समाधान के लिए पेंशन वैन शुरू की। वैन जिले भर में घूमती है और संबंधित योजनाओं में जरूरतमंद लोगों को जोड़ने का प्रयास करती है। सिर्फ 48 घंटे में, उनकी फाइलें मेरी मेज पर आ जातीं और मैं उसी के अनुसार उनकी पेंशन मंजूर कर देता।”
एक घटना को याद करते हुए वो कहते हैं, “एक बार मैं छात्रों से मुलाकात कर एक स्कूल से आ रहा था। अचानक मैंने स्कूल के बाहर बहुत से लोगों की भीड़ देखी। उनमें से एक ने बताया कि वे पेंशन वाले बाबू को देखने आए हैं। उन्होंने मुझे कभी पहले नहीं देखा था लेकिन मेरे बारे में काफी सुना था। इस घटना से मुझे अपार संतुष्टि की अनुभूति हुई और मुझे लगा कि मैं कुछ बेहतर कर रहा हूं।”
दर्द और संघर्षों से भरी एक चूड़ी बेचने वाले की यह अभूतपूर्व और प्रेरणादायक कहानी अभी पूरी नहीं हुई है। अभी इस कहानी में कई और मील के पत्थर आने बाकी हैं। जैसा कि खुद रमेश कहते हैं कि उनका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जो कुछ उन्होंने झेला वह किसी और को न झेलना पड़े। इसीलिए जब तक हर इंसान खुशहाल नहीं हो जाता रमेश रुकने वाले नहीं, ऐसे ही दृढ़-संकल्पों के साथ तो आईएएस अधिकारियों को काम करना होता है और लोगों के जीवन में बदलाव लाकर एक जन-कल्याणकारी समाज बनाना होता है।
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